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एकेश्वरवाद की इस्लामी धारणा

एकेश्वरवाद का मानव-जीवन पर प्रभाव

ख़ुदा को एक और अकेला माननाएकेवरवाद के मानने का मतलब निम्नलिखित बातों का मानाना है—मनुष्य और सृष्टि का बनानेवाला और चलानेवाला एक ख़ुदा है।वह अत्यन्त शक्तिशाली है, सब उसके सामने मजबूर और मुहताज हैं, उसकी मर्ज़ी के बिना कोई कुछ नहीं कर सकता।वह किसी पर निर्भर नहीं है, सब उसपर निर्भर रहते हैं।उसकी न कोई औलाद है और न वह ख़ुद किसी की औलाद है।वह अकेला और एकता है, कोई उसका साझी नहीं।उसका न कोई आदि है, न अन्त। जब कुछ नहीं था, तो वह था। वह हमेशा से था, हमेशा रहेगा।वही सबका पालनहार और उपास्य (रब और माबूद) है। सब उसके दास हैं।वह सब कुछ जाननेवाला है। वह कुछ भी कर सकता है। उसके लिए कुछ असम्भव नहीं।वह अत्यन्त कृपा करनेवाला और दया करनेवाला है। वह न्याय और इन्साफ़ करनेवाला है।जो कुछ है सब उसी का पैदा किया हुआ है।उस जैसा कोई नहीं। वह बिल्कुल आज़ाद है। सब उसके सामने मजबूर हैं।वह तमाम ताक़त......

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एकेश्वरवाद की वास्तविकता व अपेक्षाएं...

मनुष्य की प्रकृति व प्रवृति और उसका अंतःकरण किसी परा-लौकिक (Divine) शक्ति से उसके मानसिक, भावनात्मक एवं व्यावहारिक संबंध की मांग करता है। उसी शक्ति को इन्सान चेतन व ज्ञान के स्तर पर ईश्वर, अल्लाह, ख़ुदा, गॉड आदि कहता है। यहां तक कि विश्व के कुछ भागों, जैसे अफ्रीक़ा व भारत के कुछ क्षेत्रों में कुछ असभ्य वनवासी आदिम जनजातियों (Aborigine tribes) में भी ईश्वर की एक धुंधली, अस्पष्ट परिकल्पना पाई जाती है। ज्ञात मानव-इतिहास में (वर्तमान काल के कुछ नास्तिकों को छोड़कर) अनेश्वरवादी लोग कभी नहीं रहे। यही तथ्य परालौकिक शक्ति धर्म का मूलतत्व और धर्मिक मान्यताओं का मूल केन्द्र रहा है, और यही ‘ईश्वर में विश्वास’ अर्थात् ’ईश्वरवाद’ शाश्वत सत्य धर्म का मूलाधार रहा है।एकेश्वरवाद (तौहीद) की वास्तविकता‘एक ईश्वर है और मनुष्य के जीवन से उसका अपरिहार्य (नागुज़ीर, Inevitable) संबंध है’ यह धारणा......

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एकेश्वरवाद की मूल धारणा

ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारना मात्र तर्क और बुद्धि का विषय नहीं है, बल्कि यह इन्सान के दिल की आवाज़ है, मन की मांग है, अंतःकरण की पुकार है। ईश्वर में विश्वास मानव-प्रकृति को अभीष्ट है। इस विश्वास और धारणा का मानव-व्यक्तित्व से गहरा संबंध है। यह संबंध फूल और उसकी सुन्दरता, अग्नि और ज्वाला, जल और प्रवाह जैसा है। संपूर्ण जगत ईश्वरीय प्रभाव के अन्तर्गत क्रियाशील है। स्वयं मानव-शरीर की आंतरिक क्रियाएं स्वचालित रूप से ईश्वरीय विधान के अनुसार कार्य संपन्न कर रही हैं। श्वास-क्रिया-पाचन क्रिया, रुधिर-संचार आदि समस्त कार्य संचालित हैं। इसी प्रकार मनुष्य की आत्मा भी ईश-आज्ञापालन चाहती है। यही वह बिन्दु है जो धर्म और ईश्वरवाद की आधारशिला है। वास्तविकता यह है कि ईश्वर जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है, जिसे अस्वीकार करने से जीवन की सार्थकता समाप्त हो जाती है। ईश्वर के......

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एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा

एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा आज संसार में इस्लाम ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो एकेश्वरवाद की मौलिक धारणा को पेश करता है और उसके विरुद्ध अनेकेश्वरवाद और शिर्क से होने वाले नुक़सान को स्पष्ट रूप से बतलाता है। ईश्वर को एक मानकर उसकी ज़ात, गुण, अधिकार और इख़्तियार में किसी को साझी ठहराना शिर्क है। यह शिर्क ईश्वर के इन्कार से बढ़कर इन्सान के लिए हानिकारक है। क़ुरआन एकेश्वरवाद की धरणा के साथ-साथ अमली ज़िन्दगी में उसके तक़ाज़ों के बारे में बताता है। क़ुरआन का कहना है कि जो इन्सान ईश्वर को एक मानता हो, उसके लिए आवश्यक है कि वह अपने जीवन में इसके तक़ाज़ों को पूरा करे। इसके बिना ईश्वर को मानना या न मानना दोनों बराबर है।ईश्वर अल्लाह को एक मानने का अर्थ और उसके अमली तक़ाज़ों को क़ुरआन ने प्रमाणों के आधर पर समझाया है।1. वह ईश्वर इन्सान, सृष्टि और इस ब्रह्माण्ड को पैदा करनेवाला ही नहीं,......

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एकेश्वरवाद की इस्लामी धारणा

एकेश्वरवादइस समस्त संसार की रचना एक ही ईश्वर ने की है और इस संसार पर उसी एक ईश्वर का प्रभुत्व है, यह समझना कोई बहुत मुश्किल बात नहीं है। बल्कि यह तो एक ऐसा सत्य है जिसको समझने के लिए किसी प्रमाण और परीक्षण की आवश्यकता भी नहीं है। यह सत्य तो हर किसी के हृदय में स्वयं ही विद्यमान है और अवसर प्राप्त होते ही यह पूरी शक्ति से बाहर आ जाता  है। दूसरी ओर संसार की हर चीज़ भी चीख़-चीख़कर इसी बात की गवाही दे रही है कि इस समस्त संसार को बनाने वाला एक ही ईश्वर है।‘‘धरती और आकाशों की रचना में और रात और दिन के बारी-बारी से आने में उन बुद्धिमानों के लिए बहुत-सी निशानियां हैं।’’ (क़ुरआन, 3:190)मनुष्य की समस्या यह है कि वह इस संसार को कभी इस दृष्टि से देखता ही नहीं। वह यह तो देखता है और इसके लिए अपनी समस्त शक्ति का उपयोग भी करता है, कि इस संसार की प्रत्येक वस्तु को वह अपने जीवन के लिए......

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ईश्वर और उसका मार्गदर्शन

आज लोग ईश्वर का नाम अवश्य लेते हैं, उसकी पूजा भी करते हैं, परन्तु बड़े खेद की बात है कि उसे पहचानते बहुत कम लोग हैं।ईश्वर कौन है?ईश्वर समस्त सृष्टि का अकेला स्रष्टा, पालनहार और शासक है। उसी ने पृथ्वी, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, सितारे और पृथ्वी पर रहने वाले सारे इंसानों एवं प्रत्येक जीव-जन्तुओं को पैदा किया। न उसे खाने-पीने और सोने की आवश्यकता पड़ती है, न उसके पास वंश है और न ही उसका कोई साझी।क़ुरआन ईश्वर का इस प्रकार परिचय कराता है— ‘‘कहो वह अल्लाह है, यकता है, अल्लाह सब से निस्पृह है और सब उसके मुहताज हैं, न उसकी कोई संतान है और न वह किसी की संतान है और कोई उसका समकक्ष नहीं है।’’ (क़ुरआन, 112:1-4)इस सूरः में ईश्वर के पांच मूल गुण बताए गए हैं—(1) ईश्वर केवल एक है, (2) उसको किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती, (3) उसकी कोई संतान नहीं, (4) उसके माता-पिता नहीं एवं (5) उसका कोई साझीदार......

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एक अल्लाह पर ईमान रखने वाला समुदाय

सबसे पहली बुनियाद जिस पर यह उम्मत आश्रित है और इसका अस्तित्व बहाल है, इस्लामी आस्था है।इसी लिए इस उम्मत का संदेश है कि इस आस्था का संरक्षण किया जाए इसको उन्नति दी जाए, इसे मज़बूत किया जाए और इसकी रौशनी को सारे संसार में फैलाया जाए।इस्लामी आस्था का गठन अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी किताबों, उसके रसूलों और आख़िरत के दिन पर ईमान लाने से होता है।“रसूल ने उस मार्गदर्शन को माना जो उसके प्रभु की ओर से उस पर उतरा है। और जो लोग इस रसूल को मानने वाले हैं, उन्होंने भी इस मार्गदर्शन को दिल से मान लिया है। ये सब अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों को मानते हैं और उनका कहना यह है कि, “हम अल्लाह के रसूलों को एक-दूसरे से अलग नहीं करते, हमने सुना और आज्ञाकारी हुए। मालिक हम तुझ से क्षमा के इच्छुक हैं ओर हमें तेरी ही ओर पलटना है।’’ (क़ुरआन, 2:285)इस आस्था का उद्देश्य......

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इस्लाम का इतिहास

आमतौर पर यह समझा जाता है कि इस्लाम 1400 वर्ष पुराना धर्म है, और इसके ‘प्रवर्तक’ पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) हैं। लेकिन वास्तव में इस्लाम 1400 वर्षों से काफ़ी पुराना धर्म है; उतना ही पुराना जितना धर्ती पर स्वयं मानवजाति का इतिहास और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) इसके प्रवर्तक (Founder) नहीं, बल्कि इसके आह्वाहक हैं। आपका काम उसी चिरकालीन (सनातन) धर्म की ओर, जो सत्यधर्म के रूप में आदिकाल से ‘एक’ ही रहा है, लोगों को बुलाने, आमंत्रित करने और स्वीकार करने के आह्वान का था। आपका मिशन, इसी मौलिक मानव धर्म को इसकी पूर्णता के साथ स्थापित कर देना था ताकि मानवता के समक्ष इसका व्यावहारिक रूप साक्षात् रूप में आ जाए।इस्लाम का इतिहास जानने का अस्ल माध्यम स्वयं इस्लाम का मूल ग्रंथ ‘क़ुरआन’ है। और क़ुरआन, इस्लाम का आरंभ प्रथम  मनुष्य ‘आदम’ से होने का ज़िक्र करता है। इस्लाम धर्म के ......

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