एकेश्वरवाद की मूल धारणा

एकेश्वरवाद की मूल धारणा

ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारना मात्र तर्क और बुद्धि का विषय नहीं है, बल्कि यह इन्सान के दिल की आवाज़ है, मन की मांग है, अंतःकरण की पुकार है। ईश्वर में विश्वास मानव-प्रकृति को अभीष्ट है। इस विश्वास और धारणा का मानव-व्यक्तित्व से गहरा संबंध है। यह संबंध फूल और उसकी सुन्दरता, अग्नि और ज्वाला, जल और प्रवाह जैसा है। संपूर्ण जगत ईश्वरीय प्रभाव के अन्तर्गत क्रियाशील है। स्वयं मानव-शरीर की आंतरिक क्रियाएं स्वचालित रूप से ईश्वरीय विधान के अनुसार कार्य संपन्न कर रही हैं। श्वास-क्रिया-पाचन क्रिया, रुधिर-संचार आदि समस्त कार्य संचालित हैं। इसी प्रकार मनुष्य की आत्मा भी ईश-आज्ञापालन चाहती है। यही वह बिन्दु है जो धर्म और ईश्वरवाद की आधारशिला है। वास्तविकता यह है कि ईश्वर जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है, जिसे अस्वीकार करने से जीवन की सार्थकता समाप्त हो जाती है। ईश्वर के प्रति अपनी धारणा को विशुद्ध बनाना हमारा कर्तव्य है। हमारे चेतना-पट पर दुनिया कुछ इस प्रकार छाई रहती है कि हम स्वयं अपनी आत्मा की ओर ध्यान नहीं दे पाते, ईश्वर और उसके अस्तित्व पर चिंतन नहीं करते। उसको जानने की लालसा तो पायी जाती है, परन्तु गंभीरता से नहीं क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति कहीं न कहीं टिका है और उसी में मगन है। ईश्वर के समीप होने तथा उसे जानने के लिए उत्कृष्ट इच्छा तथा साहसिक प्रयास ज़रूरी हैं।
संसार में मनुष्य अपने चारों ओर विभिन्न प्रकार की लीलाएं घटित होते देखता है। ध्यानपूर्वक तथा सूक्ष्मता से निरीक्षण किया जाए तो पता चलता है कि स्वयं उसका अपना अस्तित्व भी किसी चमत्कार से कम नहीं है। संसार की सभी चीज़ें एक व्यवस्था में बंधी दिखाई देती हैं। प्रातः सूर्य का उदय होना और सायंकाल को ओझल हो जाना। रात में आकाश का तारों से सुशोभित होना। महकते फूल, हरी-भरी वनस्पति, पशु-पक्षी, नदी-नाले, झरने, पर्वतमालाएं जिधर निगाह जाती है अद्भुत नज़ारा देखने को मिलता है। किसी महान कारीगर की कारीगरी दिखाई देती है। यह सारी सृष्टि उद्देश्यपूर्ण है, उपयोगिता प्रदान करनेवाली है। इन्सान को जिन-जिन चीज़ों की आवश्यकता है, वे सभी यहां मौजूद हैं। आवश्यकता-पूर्ति के साथ सौंदर्यबोध का भी पूरा ख़्याल रखा गया है।
हम यह भी देखते हैं कि ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुओं और सारी शक्तियों में परस्पर समन्वय तथा सहयोग पाया जाता है, जिसे किसी संयोग का परिणाम नहीं कहा जा सकता। इस जगत और मनुष्य का अस्तित्व सदा से नहीं है अर्थात् इसकी रचना छुपी है। क्या किसी रचना की कल्पना रचनाकार के बग़ैर संभव है? यह प्रश्न क़ुरआन में है—
‘‘क्या ईश्वर के बारे में कोई संदेह है जो आकाश-समूह और धरती का रचयिता है।’’  (क़ुरआन, 14:10)
जब धरती और आकाश के अस्तित्व में हमें संदेह नहीं तो उनके सृष्टिकर्ता के विषय में हम क्यों संदेह में पड़े हुए हैं। स्वयं मनुष्य का अपना अस्तित्व किसी महान रचनाकार की चमत्कारिक रचना की गवाही के लिए पर्याप्त है। अखिल जगत की अन्य चीज़ें भी गवाही दे रही हैं।
इतना ही नहीं कि ईश्वर इस संपूर्ण जगत का रचनाकार है, बल्कि इसका संचालन एवं प्रबंधन भी उसी के द्वारा संपन्न हो रहा है। अरबों-खरबों वर्ष से उसी लगे-बंधे ढंग से यहां गतिविधियां चल रही हैं। सूर्य का प्रकाश वही है, ऊर्जा वही है, धरती के विभिन्न भागों पर किरणें पहुंचना वही है, चन्द्रमा का चक्र नहीं बदला, जल प्रबंधन वही है, पेड़-पौधों के उगने का नियम भी अपरिवर्तित है, अर्थात् निर्माण के साथ-साथ प्रबंधन एवं संचालन भी उसी ईश्वर का है।

वही अकेला

और यह समस्त कार्य वह ‘अकेले’ ही कर रहा है। इसका प्रमाण वह अति उत्तम समन्वय है जो प्रकृति में पाया जाता है। समुद्र के पानी का बादलों के रूप मंं उठना, इन बादलों का हवाओं द्वारा धरती के विभिन्न भागों तक पहुंचना, फिर वहां वर्षा होना और इसी प्रकार दूसरी अनेक प्रक्रियाएं जिस समन्वित ढंग से संपन्न हो रही हैं वह ईश्वर के एक होने पर दलील हैं। किसी कालेज के कई प्रधानाचार्य, किसी फैक्ट्री के कई मुख्य प्रबंधक होने यदि संभव नहीं हैं, तो इस सृष्टि के कई ईश्वर संचालक, स्वामी प्रबंधक कैसे संभव हैं? ईश्वर के अस्तित्व में संदेह करना अथवा उसके अधिकारों में किसी दूसरे/दूसरों को साझी ठहराना न तो तर्कसंगत है और न ही न्यायसंगत।

एक प्रश्न

यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि यदि ईश्वर है तो अपने होने की सूचना क्यों नहीं देता? इसके उत्तर में हम कहेंगे कि उसने सदैव सूचना दी, अपने संदेशवाहकों के द्वारा। मानव-इतिहास में ईशदूतों की लंबी श्रृंखला है। उन सब की मूल शिक्षाएं समान रही हैं। सबने एक ईश्वर की उपासना, दासता और आज्ञापालन की ओर लोगों को बुलाया, जीवनयापन का वह मार्ग सुझाया जो ईशप्रदत्त था, जिस पर चलकर वह इस लोक और परलोक में सुख-शांति और आनन्द प्राप्त कर सकते थे। हर युग, हर क्षेत्र, हर समुदाय में ये महापुरुष आते रहे। जब मनुष्य ने सभ्यता के वैश्विक युग में प्रवेश किया तो ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को विश्वव्यापी संदेश के साथ भेजा गया। यह संदेश दो रूपों में उपलब्ध है। एक ईशवाणी जो पवित्र क़ुरआन में पूर्ण रूप से सुरक्षित है, दूसरे हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के कथन, आचरण, आदेश-निर्देश जिन्हें ‘हदीस’ कहा जाता है। इस्लामी धारणा के अनुसार ईश्वर के सभी संदेशवाहकों में आस्था ज़रूरी है, हां वर्तमान व्यवहार के लिए हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकि यह ईश्वरीय विधान का अंतिम ‘संस्करण’ है।

ईशदूतों की शिक्षा सार

ईशदूतों, पैग़म्बरों की विशुद्ध शिक्षा वास्तव में ईश्वरवाद ही नहीं एकेश्वरवाद पर आधारित है। उनकी शिक्षा का सार यही है कि हमारा और इस सृष्टि का रचयिता अल्लाह है इसलिए पूज्य केवल वही है। वह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञानी है। इस सृष्टि की हर चीज़ उस पर आश्रित है, वह किसी पर आश्रित नहीं है। वह समस्त कमज़ोरियों से परे है। वह सर्वशक्ति-संपन्न है, इसलिए इस विशाल जगत का निर्माण, पोषण और प्रबंधन उसके लिए थका देने वाला कार्य नहीं है। वह किसी की संतान नहीं है, न उसकी कोई संतान है इसलिए वह निष्पक्ष निर्णय लेने में सक्षम है। दुनिया की हर चीज़ उसका आज्ञापालन कर रही है। ग्रह, तारे, सूर्य, चन्द्रमा, हवाएं, पशु-पक्षी, वनस्पति सब उसी के क़ानून में जकड़े हुए हैं। मनुष्य को विचार एवं कर्म की स्वतंत्रता परीक्षा के उद्देश्य से अवश्य दी गयी है फिर भी उसकी भौतिक क्रियाएं, उसकी इन्द्रियां उन्हीं नियमों के अंतर्गत क्रियाशील हैं। सत्ता, प्रभुसत्ता, शासन उसी का है। जीवन-मरण उसी के हाथ है, भाग्य विधाता वही है। मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों पर पुरस्कार या दंड देने का वही अधिकारी है। ईश्वरत्व के इन समस्त गुणों में उसका कोई साझी नहीं, इसीलिए मनुष्य को उसी के प्रति समर्पित होना चाहिए, उपासना उसी की करें, मदद उसी से मांगे, कृतज्ञता उसी के प्रति दर्शाए। वर्तमान जीवन की सुख-शांति और पारलौकिक जीवन की सफलता तथा मुक्ति के लिए ईश्वर द्वारा भेजे गये नियमों व सिद्धांतों का ईमानदारी से पालन करना चाहिए।

मानव-जीवन पर एकेश्वरवाद का प्रभाव

एकेश्वरवाद मानव-जीवन पर दूरगामी प्रभाव डालता है—

1. एक ईश्वर में आस्था रखने वाले व्यक्ति का दृष्टिकोण अतिव्यापक हो जाता है। वह एक ऐसी सत्ता को पूज्य प्रभु मानता है, जो धरती और आकाश को बनाने वाली और पोषण करनेवाली है। इस ईमान के बाद जगत की कोई चीज़ भी उसे ‘पराई’ नहीं लगती। उसकी हमदर्दी, प्रेमभाव और सेवाभाव संकुचित नहीं रह जाता।

2. एक ईश्वर को पाकर वह आत्म-सम्मान के शिखर पर पहुंच जाता है। अपनी बड़ी-बड़ी आवश्यकताओं के लिए, जिन्हें पूरी करना किसी के बस में न हो, वह उसी के आगे हाथ फैलाता है और उसी से प्रार्थना करता है।

3. उसे धैर्य और साहस प्राप्त होता है। कोई संकट उसे सन्मार्ग से विचलित नहीं कर सकता। वीरता, निडरता तथा त्याग की भावना से वह परिपूर्ण होता है। अहंकार और घमंड उसमें नहीं होता। लोभ-लालच ईर्ष्या, घृणा, ऊंच-नीच, छूत-छात के भेदभाव समाप्त हो जाते हैं क्योंकि अब सभी मनुष्य एक ही ‘कुटुम्ब’ के हैं ईश्वर के कुटुम्ब के। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के एक प्रसिद्ध प्रवचन में कहा गया है कि ‘‘सृष्टि ईश्वर का कुटुम्ब है...।’’

4. ऐसा व्यक्ति जो ईश्वर में विश्वास रखता है और उसके भेजे हुए आदेशों को स्वीकार करता है और उन शुभ सूचनाओं और चेतावनियों से अनभिज्ञ नहीं होता जो ईश्वर ने अपने रसूलों के द्वारा प्रसारित की हैं, वही इस योग्य होता है कि अपने दायित्व को पूर्ण रूप से निभा सके। ऐसा व्यक्ति अपने शरीर और आत्मा दोनों पर ईश्वर का अधिकार स्वीकार करता है, फिर यह असंभव है कि वह अपने आंतरिक या बाह्य जीवन को अपवित्र रखे, अर्थात् पाप, अत्याचार, भ्रष्ट आचार व अन्याय, अनैतिकता व दुष्कर्म आदि से दूषित रखे।

5. वास्तविक एकेश्वरवाद का अभीष्ट प्रमाण यह है कि मनुष्य स्वेच्छापूर्वक अपने आपको ईश्वर के आगे अर्पण कर दे। अपनी इच्छाओं को ईश्वर की पसन्द के अनुरूप ढाले। जातीय एवं राष्ट्रीय भावना उसकी दृष्टि को संकुचित न कर सके । एकेश्वरवादी व्यक्ति की केवल उपासना एवं वन्दना ही ईश्वर के लिए नहीं होती, बल्कि उसका संपूर्ण जीवन उसी को समर्पित होता है। क़ुरआन में है—
‘‘कह दो मेरी उपासना, मेरी क़ुरबानी, मेरा जीना और मरना अल्लाह के लिए है जो सारे संसार का पालनहार है।’’ (क़ुरआन, 6:162)

क़ुरआन एवं अन्य धर्मग्रंथों की शिक्षा

पवित्र क़ुरआन विशुद्ध एकेश्वरवाद की शिक्षा देता है। एक तिहाई से अधिक शिक्षाएं इसी विषय को समर्पित हैं। अन्य प्रमुख धर्मग्रंथों—वेद तथा बाइबल की मूल एवं विशुद्ध शिक्षाएं एकेश्वरवाद ही की घोषणा करती हैं। तीनों ग्रंथों के कुछ चयनित अंश नमूने के रूप में प्रस्तुत है—

पवित्र क़ुरआन

पवित्र क़ुरआन का एक छोटा—चार वाक्यों पर आधरित-अध्याय ईश्वर के बारे में अति सुन्दर शिक्षा देता है—
‘‘कहो, वह अल्लाह है, यकता। अल्लाह सबसे निरपेक्ष है और सब उसके मुहताज हैं। न उसकी कोई संतान है और न वह किसी की संतान। और कोई उसका समकक्ष नहीं है।’’ (क़ुरआन, 112:1-4)

· ईश्वर और उसके गुणों का वर्णन इस प्रकार है—
‘‘अल्लाह, वह जीवंत शाश्वत सत्ता, जो संपूर्ण जगत को संभाले हुए है उसके अतिरिक्त कोई पूज्य प्रभु नहीं है। वह न सोता है और न उसे ऊंघ लगती है। धरती और आकाशों में जो कुछ है उसी का है। कौन है जो उसके सामने उसकी अनुमति के बिना सिफ़ारिश कर सके? जो कुछ बन्दों के सामने है उसे भी वह जानता है और जो कुछ उनसे ओझल है उसे भी वह जानता है, और उसके ज्ञान में से कोई चीज़ उनके ज्ञान की पकड़ में नहीं आ सकती यह और बात है कि किसी चीज़ का ज्ञान वह ख़ुद ही उनको देना चाहे। उसका राज्य आसमानों और ज़मीन पर छाया हुआ है और उनकी देख-रेख उसके लिए कोई थका देने वाला कार्य नहीं है, बस वही एक महान और सर्वोपरि सत्ता है।’’  (क़ुरआन, 2:255)

· एक और स्थान पर ईश्वर और उसके गुणों की चर्चा प्रभावशाली ढंग से की गयी है—
‘‘वह अल्लाह ही है जिसके अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं, परोक्ष और प्रत्यक्ष का जाननेवाला, अत्यंत कृपाशील और दयावान। वह अल्लाह ही है जिसके अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं। वह सर्वशासक, अत्यंत गुणवान, सलामती देनेवाला, शरणदाता, प्रभुत्वशाली, प्रभावशाली, अत्यंत महान! ईश्वर की महिमा के प्रतिकूल है वह सब शिर्क जो यह लोग कर रह

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