राजनीतिक व्यवस्था
राजनीतिक व्यवस्था
इस्लामी राजनैतिक व्यवस्था की बुनियाद तीन सिद्धांतों पर रखी गई है-तौहीद, रिसालत और ख़िलाफ़त। इन सिद्धांतों को भली-भाँति समझे बिना इस्लामी राजनीति की विस्तृत व्यवस्था को समझना कठिन है। इसलिए सर्वप्रथम इन्हीं की संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तुत है।
तौहीद (एकेश्वरवाद) का अर्थ यह है कि ईश्वर इस संसार और इसमें बसने वालों का स्रष्टा, पालक और स्वामी है। सत्ता और शासन उसी का है। वही हुक्म देने और मना करने का हक़ रखता है। आज्ञापाल तथा पूर्ण समर्पण वे$वल उसी के लिए है। हमारा यह अस्तित्व, हमारे ये शारीरिक अंग एवं शक्तियाँ जिनसे हम काम लेते हैं, हमारे उपयोग की वस्तुएँ तथा उनसे संबंधित हमारे अधिकार जो हमें संसार की सभी चीज़ों पर प्राप्त हैं और स्वयं वे चीज़ें जिन पर हमारा अधिकार है, उनमें से कोई चीज़ भी न हमारी पैदा की हुई है और न हमने उसे प्राप्त किया है, सबकी सब ईश्वर द्वारा ही पैदा की गई हैं और उसी ने हमें सब कुछ प्रदान किए हैं, जिसमें अन्य कोई हस्ती भागीदार नहीं है। इसलिए अपने अस्तित्व का उद्देश्य और अपनी क्षमताओं का प्रयोजन और अपने अधिकारों का सीमा-निर्धारण करना न तो हमारा अपना कार्य है और न किसी अन्य व्यक्ति का इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार है, यह केवल उस ईश्वर का कार्य है जिसने हमको इन शक्तियों तथा अधिकारों के साथ पैदा किया और दुनिया की बहुत-सी चीज़ें हमारे अधिकार में दी हैं। यह सिद्धांत मानवीय प्रभुसत्ता (Sovereignty) को पूर्ण रूपेण नकार देता है। एक इन्सान को या एक परिवार, एक वर्ग हो या एक समुदाय अथवा पूरी दुनिया के लोग हों, किसी को प्रभुसत्ता का अधिकार नहीं। हाकिम (सम्प्रभु) केवल अल्लाह है, उसी का हुक्म ‘क़ानून' है।
रिसालत (ईशदूतत्व) उस माध्यम का नाम है जिसके द्वारा ईश्वरीय विधान मानव तक पहुँचता है। इस माध्यम से हमें दो चीज़ें मिलती हैंदृएक: ‘किताब', जिसमें स्वयं ईश्वर ने अपना क़ानून बताया है; दूसरे: ‘सुन्नत' अर्थात् किताब की प्रामाणिक एवं विश्वसनीय व्याख्या जो ईशदूत ने ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में अपनी कथनी और करनी के द्वारा प्रस्तुत की है। ईश ग्रंथ में उन सभी नियमों तथा सिद्धांतों को उल्लेख कर दिया गया है जिन पर मानवीय जीवन-व्यवस्था आधारित होनी चाहिए और ईशदूत (रसूल) ने किताब (ईश-ग्रंथ) के अनुकूल व्यावहारिक रूप में एक जीवन-व्यवस्था बनाकर, चलाकर और उसके आवश्यक विवरण बताकर हमारे लिए एक नमूना स्थापित कर दिया है। इन्हीं दो चीज़ों के समूह का नाम इस्लामी पारिभाषिक शब्दावली में ‘शरीअत' (धर्म शास्त्र, धार्मिक क़ानून) है और यही वह आधारभूत संविधान है जिस पर इस्लामी राज्य की स्थापना होती है।
अब ‘ख़िलाफ़त' को लीजिए। यह शब्द अरबी भाषा में प्रतिनिधित्व के लिए बोला जाता है। इस्लामी दृष्टिकोण से दुनिया में इन्सान की हैसियत यह है कि वह धरती पर अल्लाह का प्रतिनिधि है अर्थात् उसके राज्य में उसके लिए हुए अधिकारों का प्रयोग करता है। आप जब किसी व्यक्ति को अपनी सम्पत्ति का प्रबंध सौंपते हैं तो निश्चित रूप से आपके सामने चार बातें होती हैं-एक यह कि सम्पत्ति के वास्तविक स्वामी आप स्वयं हैं न कि वह प्रबंधक व्यक्ति; दूसरे यह कि उस व्यक्ति को आपकी जायदाद में आपके निर्देशानुसार कार्य करना चाहिए; तीसरे यह कि उसे अपने अधिकारों को आपके द्वारा निर्धारित सीमाओं के अन्दर ही प्रयोग करना चाहिए; चैथे यह कि आपकी जायदाद में उसे आपकी इच्छा और मंतव्य को पूरा करना होगा न कि अपना। ये चार शर्तें प्रतिनिधित्व की अवधारणा में इस प्रकार शामिल हैं कि प्रतिनिधि (नायब) का शब्द बोलते ही ये शर्तें स्वयं ही मानव के मस्तिष्क में आ जाती हैं। अगर कोई प्रतिनिधि इन चार शर्तों को पूरा न करे तो आप कहेंगे कि प्रतिनिधित्व की सीमाओं को लांघ गया है और उसने वह अनुबंध तोड़ दिया है जो प्रतिनिधित्व के मूल अर्थ में सन्निहित था। ठीक इन्हीं अर्थों में इस्लाम इन्सान को ख़ुदा का ख़लीफ़ा ठहराता है और इस ख़िलाफ़त की अवधारणा में यही चारों शर्तें सम्मिलित हैं। इस राजनीतिक विचारधारा के आधार पर जो राज्य बनेगा वह वास्तव में, ईश्वर की संप्रभुता (Sovereignty) के अंतर्गत इन्सानी ख़िलाफ़त होगी, जिसे ख़ुदा के मुल्क (राज्य) में उस के निर्देशानुसार निर्धारित सीमाओं के भीतर कार्य करके उसकी इच्छा पूरी करनी होगी।
ख़िलाफ़त की इस व्याख्या के संबंध में इतनी बात और समझ लीजिए कि इस्लाम की राजनैतिक विचारधारा किसी व्यक्ति या परिवार या वर्ग को ख़लीफ़ा घोषित नहीं करती बल्कि पूरे समाज को ख़िलाफ़त (प्रतिनिधित्व) का पद सौंपती है जो तौहीद (एकेश्वरवाद) और रिसालत के आधारभूत सिद्धांतों को स्वीकार करके प्रतिनिधित्व की शर्तें पूरी करने को तैयार हो। ऐसा समाज सामूहिक रूप से ख़िलाफ़त के योग्य है और यह ख़िलाफ़त उसके प्रत्येक सदस्य तक पहुँचती है। यही वह बिन्दु है जहाँ इस्लाम में लोकतंत्र की शुरुआत होती है। इस्लामी समाज का प्रत्येक व्यक्ति ख़िलाफ़त के अधिकार रखता है। ये अधिकार सबको समान रूप से प्राप्त होते हैं जिसके संबंध में किसी को दूसरे पर वरीयता नहीं दी जा सकती और न ही किसी को इनसे वंचित किया जा सकता है। राज्य का प्रशासन चलाने के लिए जो हुकूमत बनाई जाएगी वह इन्हीं व्यक्तियों की सहमति से बनेगी। यही लोग अपने प्रतिनिधित्व का एक भाग हुकूमत को सौंपेंगे। उसके बनने में उनकी राय शामिल होगी और उनके परामर्श ही से वह चलेगी। जो उन लोगों का विश्वास प्राप्त करेगा वही उनकी ओर से ख़िलाफ़त के कर्तव्य निभाएगा और जो उनका विश्वास खो देगा उसे सत्ता के पद से हटना पड़ेगा। इस दृष्टि से इस्लामी लोकतंत्र एक पूर्ण लोकतंत्र है, उतना ही पूर्ण जितना कोई लोकतंत्र हो सकता है। तथापि जो चीज़ इस्लामी लोकतंत्र को पाश्चात्य लोकतंत्र से अलग करती है वह यह है कि पश्चिम का राजनीतिक दृष्टिकोण जनता की प्रभुसत्ता (Sovereignty of People) को मानती है जबकि इस्लाम लोकतंत्रीय खिलाफ़त को मानता है। वहाँ जनता स्वयं संप्रभुत है और यहाँ संप्रभुता ईश्वर की है और जनता उसकी ख़लीफ़ा और प्रतिनिधि है। वहाँ लोग अपने लिए ख़ुद शरीअत (क़ानून) बनाते हैं, यहाँ उन्हें उस शरीअत (क़ानून) का अनुपालन करना पड़ता है जिसको ईश्वर ने अपने दूत के माध्यम से दिया है। वहाँ हुकूमत का काम जनता की इच्छा की पूर्ति करना है, यहाँ हुकूमत और उसके बनाने वाले सबका काम अल्लाह की इच्छा पूरी करना होता है। संक्षेप में पश्चिमी लोकतंत्र एक निरंकुश ख़ुदाई है जो अपनी शक्तियों और अधिकारों को निर्बाध प्रयोग करती है। इसके विपरीत इस्लामी लोकतंत्र क़ानून के प्रति पूर्ण समर्पित है जो अपने अधिकारों को ईश्वरीय निर्देशानुसार निर्धारित सीमाओं के भीतर ही इस्तेमाल करती है।
अब आपके सामने उस राज्य की एक संक्षिप्त मगर स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत की जा रही है जो तौहीद, रिसालत और ख़िलाफ़त के सिद्धांतों पर आधारित होता है।
इस राज्य का उद्देश्य क़ुरआन में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि वह उन भलाइयों को स्थापित करे और फैलाए जिन्हें ईश्वर हमारे जीवन में देखना चाहता है तथा उन बुराइयों को रोके, दबाए और मिटाए जिनकी उपस्थिति हमारे जीवन में उसे पसन्द नहीं है। इस्लाम में सत्ता का उद्देश्य न तो मात्र राष्ट्र की व्यवस्था चलाना है और न यह कि वह किसी विशेष वर्ग की सामूहिक इच्छाओं की पूर्ति करे। इसके बजाय इस्लाम उसके सामने एक उच्च लक्ष्य रख देता है जिसको प्राप्त करने के लिए उसको अपने सभी साधन तथा अपनी पूर्ण क्षमता लगा देनी चाहिए, और वह यह है कि ईश्वर अपनी धरती पर अपने बन्दों के जीवन में जो शुद्धता, पवित्रता, सुन्दरता और भलाई तथा जो उन्नति और सफलता देखना चाहता है वह उत्पन्न हो और बिगाड़ के उन सभी प्रकारों का उन्मूलन हो जो ईश्वर की दृष्टि में धरती को उजाड़ने वाले तथा इन्सानों के जीवन को ख़राब करने वाले हैं। इस लक्ष्य को पेश करने के साथ इस्लाम हमारे सामने भलाई और बुराई दोनों का एक स्पष्ट चित्र रख देता है जिसमें अपेच्छित भलाइयों और अनिच्छित बुराइयों को बिल्कुल स्पष्ट कर दिया गया है। इस चित्र को सामने रखकर हर युग में और हर परिस्थिति में इस्लामी राज्य अपना सुधारात्मक कार्यक्रम बना सकता है।
इस्लाम की निरंतर मांग यह है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्रा में नैतिक सिद्धांतों का अनुपालन किया जाए, इसलिए वह अपने राज्य के लिए भी यह स्थायी नीति निर्धारित कर देता है कि उसकी राजनीति निष्पक्ष न्याय, निस्वार्थ सत्यता और प्रखर ईमानदारी पर स्थापित हो। वह राष्ट्रीय या प्रशासनिक या सामुदायिक हित के लिए झूठ, छलकपट और अन्याय को किसी भी स्थिति में सहन करने के लिए तैयार नहीं है। देश के अन्दर शासक और प्रजा के आपसी संबंध हों या देश के बाहर दूसरे राष्ट्रों के साथ संबंध, दोनों में वह सच्चाई, ईमानदारी और न्याय को स्वार्थ और उद्देश्यों पर प्राथमिकता देता है। मुस्लिम जनता की भाँति मुस्लिम राज्य पर भी वह यह प्रतिबंध लागू करता है कि अनुबंध करो तो उसे पूरा करो, लेने और देने के मापदंड समान रखो, जो कुछ कहते हो वही करो और जो करते हो वही कहो। अपने अधिकार के साथ अपने कर्तव्य को भी याद रखो और दूसरों के कर्तव्य के साथ उनके अधिकार को भी न भूलो। शक्ति को अत्याचार और शोषण के बजाय न्याय की स्थापना का साधन बनाओ। अधिकार को हर हाल में अधिकार समझो और उसे अदा करो। सत्ता को ईश्वर की अमानत समझो और इस विश्वास के साथ उसे इस्तेमाल करो कि इस अमानत का पूरा-पूरा हिसाब तुम्हें ईश्वर के समक्ष देना है।
यद्यपि इस्लामी राज्य किसी भूभाग में ही स्थापित होता है परन्तु वह मानवाधिकारों तथा नागरिक अधिकारों को भौगोलिक सीमाओं में सीमित नहीं रखता। जहाँ तक मानवाधिकार का संबंध है इस्लाम प्रत्येक मनुष्य के लिए कुछ मौलिक अधिकार घोषित करता है और प्रत्येक स्थिति में उसके सम्मान का आदेश देता है, भले ही वह व्यक्ति इस्लामी राज्य की सीमा के अन्दर रहता हो या उससे बाहर, चाहे वह मित्र हो या शत्रु, चाहे उससे शांति-समझौता हो या वह युद्ध पर उतारू हो। इन्सानी ख़ून प्रत्येक दशा में आदरणीय है, न्यायिक उद्देश्य के अतिरिक्त उसे किसी भी परिस्थिति में नहीं बहाया जा सकता। स्त्रियों, बच्चों बूढ़ों, रोगियों और घायलों पर किसी भी हालत में हाथ उठाना उचित नहीं। स्त्री का सतीत्व हर हाल में आदर योग्य है और उसे बेआबरू नहीं किया जा सकता। भूखा व्यक्ति रोटी का, नंगा व्यक्ति वस्त्र का, घायल या बीमार व्यक्ति उपचार व देखभाल का आवश्यक रूप से अधिकारी है, भले ही उसका संबंध शत्रु वर्ग से हो। ये और इसी प्रकार के अनेक अधिकार इस्लाम ने इन्सान को इन्सान की हैसियत से दिए हैं। इस्लामी राज्य के संविधान में इनको मौलिक अधिकार का स्थान प्राप्त है। इसी प्रकार नागरिक अधिकार भी इस्लाम केवल उन लोगों को ही नहीं देता जो उसके राज्य की सीमाओं में जन्मे हैं, बल्कि हर मुसलमान चाहे वह संसार के किसी भी कोने में पैदा हुआ हो, इस्लामी राज्य की सीमाओं में दाख़िल होते ही अपने आप उसका नागरिक बन जाता है और जन्मजात नागरिकों के समान अधिकारों का हक़दार बन जाता है। दुनिया में जितने भी इस्लामी राज्य होंगे उन सबके बीच साझी नागरिकता होगी। मुसलमान को किसी इस्लामी राज्य में प्रवेश करने के लिए पासपोर्ट की आवश्यकता न होगी। मुसलमान किसी नस्ल, वर्ग या समुदाय के भेद के बिना प्रत्येक इस्लामी देश में बड़े से बड़े पद पर नियुक्त हो सकता है।
इस्लामी राज्य की सीमाओं में बसने वाले ग़ैर-मुस्लिमों के भी कुछ अधिकार इस्लाम ने निर्धारित कर दिए हैं जो इस्लामी संविधान का अभिन्न अंग होंगे। इस्लामी शब्दावली में ऐसे ग़ैर मुस्लिम लोगों को ‘ज़िम्मी' कहा जाता है। अर्थात् जिनकी सुरक्षा का ज़िम्मा इस्लामी राज्य ने लिया है। ज़िम्मी की जान-माल और इज़्ज़त एक मुसलमान की जान-माल और इज़्ज़त की भाँति ही आदरणीय है। फ़ौजदारी तथा दीवानी क़ानूनों में मुस्लिम और ज़िम्मी में कोई अन्तर नहीं। ज़िम्मियों के पर्सनल लॉ में इस्लामी राज्य कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। ज़िम्मियों को अपने विश्वास, आस्था तथा धार्मिक कार्यों में पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होगी। ज़िम्मी अपने धर्म का प्रचार ही नहीं बल्कि क़ानून की हद में रहते हुए इस्लाम की आलोचना भी कर सकता है। ये और इस प्रकार के अनेक अधिकार इस्लामी विधान में ग़ैर मुस्लिम प्रजा को दिए गए हैं। ये स्थायी अधिकार हैं जिन्हें उस समय तक छीना नहीं जा सकता जब तक कि वे इस्लामी राज्य के उत्तरदायित्व से किसी कारणवश बाहर नहीं हो जाएँ। कोई ग़ैर-मुस्लिम राज्य अपनी मुस्लिम प्रजा पर चाहे कितने ही अत्याचार क्यों न करे एक इस्लामी राज्य को उसके जवाब में अपनी ग़ैर-मुस्लिम प्रजा पर शरीअत के विरुद्ध ज़रा भी अत्याचार करने का अधिकार नहीं, यहाँ तक कि इस्लामी राज्य की सीमाओं के बाहर अगर सारे मुसलमान क़त्ल भी कर दिए जाएँ तब भी अपनी सीमा में एक ग़ैर मुस्लिम का ख़ून नाहक़ नहीं बहाया जा सकता।
इस्लामी राज्य के प्रबंध का उत्तरदायित्व एक अमीर (प्रधान) के सुपुर्द किया जाएगा जिसे लोकतंत्रीय राष्ट्रपति के समकक्ष समझना चाहिए। अमीर के चुनाव में उन सभी वयस्क स्त्री-पुरुषों को मत देने का अधिकार होगा जो संविधान के नियमों को स्वीकार करते हों। चुनाव का आधार यह होगा कि इस्लाम का पूर्ण ज्ञान, इस्लामी चरित्र, ईश भय, दयालुता और गहन विचार शक्ति की दृष्टि से कौन व्यक्ति समाज के अधिक से अधिक व्यक्तियों का विश्वास पात्र है। ऐसे व्यक्ति को अमीर के पद के लिए चुना जाएगा, फिर उसकी सहायता के लिए एक ‘मजलिस-ए-शूरा' (सलाहकार परिषद) बनाई जाएगी और वह भी लोगों के द्वारा चुनी जाएगी। अमीर के लिए अनिवार्य होगा कि वह सलाहकार परिषद के मशविरे से देश का शासन-प्रबंध चलाए। एक अमीर उसी समय तक सत्ता में रह सकता है जब तक कि उसे लोगों का विश्वास प्राप्त रहेगा। अविश्वास की दशा में उसे पद छोड़ना होगा। जब तक वह विश्वास मत रखता है उसे शासन के पूर्ण अधिकार प्राप्त रहेंगे और वह सलाहकार परिषद के बहुमत के मुक़ाबले में अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर सकेगा। अमीर और उसके प्रशासन पर आम नागरिकों को आलोचना करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त होगा।
इस्लामी स्टेट में क़ानून का निर्माण इस्लामी शरीअत (क़ुरआन और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰ के कथन) की सीमाओं के अन्तर्गत ही किया जा सकता है। ईश्वर और उस के संदेष्टा के आदेश तो अनुकरणीय हैं। कोई विधान परिषद उसमें परिवर्तन नहीं कर सकती। रहे ऐसे आदेश और नियम जिनके दो अर्थ संभव हों तो उनमें शरीअत का मंशा ज्ञात करना उन लोगों का काम है जो शरीअत का ज्ञान रखते हों। इसलिए ऐसे मामले सलाहकार परिषद की उस उपसमिति के सुपुर्द किए जाएँगे जिसके सदस्य धार्मिक विद्वान होंगे। ऐसे अनेक मामले जिनके संबंध में शरीअत ने कोई निर्धारित नियम नहीं दिया है, सलाहकार परिषद धार्मिक सीमाओं के अन्तर्गत क़ानून बनाने के लिए स्वतंत्र है।
इस्लाम में न्यायपालिका प्रशासन के अधीन न होकर सीधे ईश्वर की प्रतिनिधि तथा उसी के समक्ष जवाबदेह होती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति तो प्रशासनतंत्र ही करेगा परन्तु जब एक व्यक्ति अदालत की कुर्सी पर बैठ जाएगा तो वह ईश्वर के क़ानून के अनुसार लोगों के बीच बेलाग इन्साफ़ करेगा और इस इन्साफ़ की पकड़ से हुकूमत भी न बच सकेगीं यहां तक कि हुकूमत के उच्चतम पदाधिकारी को भी वादी या प्रतिवादी की हैसियत स�
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