‘काफ़िर’—मज़हबी गाली, अपमानजनक शब्द?

‘काफ़िर’—मज़हबी गाली, अपमानजनक शब्द?

‘‘क़ुरआन में ‘काफ़िर’ शब्द हिन्दुओं के लिए अपमानजनक और गाली समान प्रयुक्त हुआ है। कहा गया है कि इन्हें मारो-काटो। अतः इससे भारतीय समाज में नफ़रत, दुश्मनी, असहिष्णुता की स्थिति पैदा होती है।’’
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वास्तव में यदि ऐसा ही होता जैसा कि सन्देह या आपत्ति जताई जाती है तो विश्व के, और प्रमुखतः भारत के अनेक ग़ैर-मुस्लिम विचारकों, विद्वानों और इतिहासकारों ने इस्लाम के बारे में उपरोक्त आपत्ति के विरुद्ध सैकड़ों हज़ारों पृष्ठ लिख न दिए होते। यह आरोप व आक्षेप अधिकतर नाजानकारी और कुछ हद तक ग़लत जानकारी या दुष्प्रचार की वजह से है।
शब्द ‘काफ़िर’ का अर्थ :
काफ़िर शब्द तीन अरबी मूल अक्षरों ‘क-फ़-र’ से बना है। क़ुरआन में इस मूल से बने 54 शब्दों में से 51 शब्द जो (74 अध्यायों (सूरा) की 479 आयतों में 521 बार आए हैं), निम्नलिखित भाव में प्रयुक्त हैं। इन सारे शब्दों का मूल शब्द ‘कुफ़्र’ है; काफ़िर का अर्थ है ‘कुफ़्र$ करने वाला’।
कुफ़्र के कई अर्थ हैं। उदाहरणतः इन्कार करना, छिपा लेना, हटा देना, दूर कर देना, प्रतिकूल कार्य करना, दबा देना, मिटा देना, अवहेलना करना, छोड़ देना आदि। (किसान के ज़मीन में बीज दबा देने के लिए भी अरबी में ‘कुफ़्र’ शब्द प्रयुक्त होता है)।
पारिभाषिक अर्थ :
इस्लाम (और क़ुरआन) की पारिभाषिक शब्दावली में ‘कुफ़्र’ शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जैसे: इस्लाम की वास्तविकता समझ लेने के बाद उस पर ईमान लाने के बजाय, इस्लाम का इन्कार कर देना, मन-मस्तिष्क पर ‘सत्य’ स्पष्ट हो जाने के बाद भी उसे छिपा लेना, दबा देना, तिरस्कृत कर देना। यह शब्द स्वयं मुसलमानों के भेस में, कपटाचारियों (Hypocrites, मुनाफ़िक़ों) के उस कृत के लिए भी प्रयुक्त हुआ है जो इस्लाम की कुछ बातों पर अमल करने और कुछ को छोड़ देने, अल्लाह की आंशिक या पूर्ण अवज्ञा (नाफ़रमानी), ऊपर से ईमान लेकिन अन्दर से ईमान के विरोध आदि के रूप में किया जाए। इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) जो ईश-ग्रंथ क़ुरआन के वाहक हैं, ने स्वयं मुसलमानों के लिए कहा: ‘‘जिसने जान-बूझकर नमाज़ छोड़ दी उसने कुप्ऱ$ किया।’’ क़ुरआन की छः आयतों (8:29, 39:35, 48:5, 64:9, 65:5, 66:8) में अल्लाह ने स्वयं अपने लिए यह शब्द प्रयोग किया है; ‘‘...तो अल्लाह तुम से तुम्हारी बुराइयों, गुनाहों को दूर कर देगा।’’ एक आयत (2:271) में फ़रमाया, ‘‘...इससे तुम्हारी बुराइयां मिट जाती हैं।’’
उपरोक्त विवरण से यह बात पूर्णतः, निस्सन्देह स्पष्ट हो जाती है कि क़ुरआन में ‘काफ़िर’ शब्द ग़ैर-मुस्लिमों के लिए विशेष होकर उनको अपमानित करने के लिए प्रयुक्त नहीं हुआ है। हिन्दुओं के लिए अपमान या गाली के तौर पर इसके प्रयुक्त न होने की साफ़ दलील यह है कि क़ुरआन के अवतरण काल (610-632 ई॰) में ‘हिन्दू’ नाम से कोई क़ौम न केवल अरब में, बल्कि भारत में भी पाई ही नहीं जाती थी (यह ‘हिन्दू’ शब्द बाद की शताब्दियों में बना है, इतिहासकारों ने इसकी पुष्टि की है)।
फिर यह ‘काफ़िर’ शब्द क़ुरआन में किस हैसियत में आया है? दरअस्ल यह एक ‘पहचान तय करने वाला शब्द’ (Word of Identitification) है। यह ‘ईमान लाने वाले’ (मोमिन/मुस्लिम) व्यक्ति के विपरीत ‘ईमान (इस्लाम) का इन्कार कर देने वाले’ व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ है। उदाहरणतः ‘ग्रेजुएट’ के विपरीत ‘नान-ग्रेजुएट’ का शब्द, जो निस्सन्देह पहचान (Identity) के लिए है, न कि अपमान के लिए या गाली के तौर पर।
क़ुरआन की नीति
‘काफ़िर’ के लिए क़ुरआन में मोटे तौर पर दो क़िस्म की बातें आई हैं। एक:  इस जीवन (वर्तमान इहलौकिक जीवन) के लिए। दो: मृत्युपश्चात (पारलौकिक) जीवन के लिए। चूंकि क़ुरआन (अर्थात् इस्लाम) का सामान्य नियम है कि हर मनुष्य को यह अधिकार प्राप्त है कि वह ईमान (इस्लाम) को चाहे तो स्वीकार कर ले चाहे अस्वीकार कर दे, ‘दीन’ (इस्लाम धर्म) में ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं है (2:256), इसलिए काफ़िर के प्रति न्याय, सत्यनिष्ठा, मानवीय मूल्यों तथा पूरे इन्साफ़ व मानवाधिकार के तक़ाज़ों के अनुकूल व्यवहार किया जाएगा। ‘काफ़िरों’ के बारे में क़ुरआन में जो भी बातें पकड़ने, मारने, क़त्ल करने की आई हैं उन्हें पूरे संदर्भ (Context) के साथ पढ़ा जाए तो मालूम होगा कि यह युद्ध से संबंधित आदेश थे। मुसलमानों (और पैग़म्बर मुहम्मद सल्ल॰) को मक्का के काफ़िरों ने 13 वर्ष तक सताया था, प्रताड़ित व अपमानित किया था, दो बार मुसलमानों को मक्का छोड़कर हब्शा (इथोपिया) प्रवास पर मजबूर किया था, यहां तक कि मक्का (जन्म-भूमि, अपना नगर, अपना घर-बार, सामग्री, आजीविका; यहां तक कि बीवी-बच्चे, माता-पिता, परिवार भी) छोड़कर 450 किलोमीटर दूर मदीना नगर के प्रवास (हिजरत, Migration) पर विवश कर दिया था। इसके बाद भी अपनी सेनाएं और संयुक्त सेनाएं (अहज़ाब Allied Armies) लेकर मुसलमानों पर बार-बार चढ़ आते थे, और पूरे अरब प्रायद्वीप में जगह-जगह इस्लाम और मुसलमानों का अरब से सर्वनाश कर देने के लिए हमलों की तैयारियां जारी रहती थीं तब जाकर अल्लाह ने मुसलमानों को इजाज़त दी कि इन से युद्ध करो, जहां पाओ...पकड़ो, क़त्ल करो। यह ऐसे काम की इजाज़त या आज्ञा (आदेश) थी जो मानवजाति के पूरे इतिहास में, युद्ध-स्थिति में सदा मान्य रही है। शान्ति-स्थापना के लिए हर सभ्य समाज ने ऐसे युद्ध को मान्यता दी है। इतिहास साक्षी है कि इस्लामी शासन-काल में मुसलमानों ने जितने युद्ध लड़े, वे या तो आत्म-रक्षा के लिए थे, या अरब व आस-पास के भूखण्डों में शान्ति-स्थापना हेतु आक्रमणरोधक युद्ध (Pre-emptive war) के तौर पर लड़े गए। यथा-अवसर तथा यथा-संभव उन्होंने सदा ‘सुलह’ को ‘युद्ध’ पर प्राथमिकता दी। शान्ति-समझौतों को हमेशा वांछनीय विकल्प माना।
मृत्यु पश्चात जीवन के लिए ईश्वर ने काफ़िरों (सत्य-धर्म के इन्कारियों) के लिए क़ुरआन में अनेक स्थानों पर इन्कार के प्रतिफल-स्वरूप, नरक की चेतावनी दी है। यह बिल्कुल ईश्वर और उसके बन्दों के बीच का मामला है। और ईश्वर, जो अपने तमाम बन्दों का रचयिता, पैदा करने वाला, प्रभु-स्वामी, पालक-पोषक (Provider, Sustainer, रब) है वह अपने बन्दों के बारे में, (उनके कर्मानुसार) जो भी पै़$सला परलोक जीवन के लिए करे, इसका उसे अधिकार है, इसमें किसी मुसलमान की कोई भूमिका (Role) नहीं; न ही किसी भी व्यक्ति का आक्षेप (Interference) संभव है।
काफ़िरों के प्रति व्यवहार
ऐसे ‘काफ़िरों’ के साथ, जो मुसलमानों (ईमान वालों) से लड़ते नहीं, उन्हें सताते नहीं, उन पर अत्याचार के पहाड़ नहीं तोड़ते, उन्हें उनकी आबादियों, बस्तियों, नगरों से निकालते नहीं, उनके ख़िलाफ़ युद्धरत नहीं होते, कमज़ोरों को दबा-दबाकर उनका जीना अजेरन नहीं करते; इस्लाम ने सौहार्द्र, प्रेम-व्यवहार, आदर, इन्साफ़ और शान्तिमय रूप से रहने, अच्छाइयों में सहयोग करने, सहयोग देने, शान्ति-संधि समझौता करने तथा ठीक मुसलमानों ही की तरह उनके मानव-अधिकार देने तथा उनके अधिकारों की रक्षा करने की शिक्षा व आदेश दिया है।
निष्कर्ष  यह कि ‘काफ़िर’ शब्द एक गुणवाचक संज्ञा (Qualitative Noun) है; इसका किसी विशेष जाति, नस्ल, क़ौम, क्षेत्रवासी समूह या रंग व वर्ग से कुछ संबंध नहीं। जो भी इस्लाम का इन्कार करे वह पहचान के तौर पर ‘इन्कारी’ (अर्थात् कुफ़्र$ करने वाला) कहलाता है।

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