इस्लाम और आतंकवाद
इस्लाम दया और कृपा का धर्म है। अल्लाह ने अपनी किताब में ‘रहमत’, ‘दयालुता’ को हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) की रिसालत का शीर्षक बनाया है।
“हे नबी, हमने तो तुमको दुनिया वालों के लिए दयालुता बनाकर भेजा है।”
(क़ुरआन, 21:107)
इसी तरह रसूल (सल्ल॰) ने अपना परिचय देते हुए फ़रमाया—
“मैं उपहार में दी गई ‘रहमत’ दयालुता हूं।” (किताबुल ईमान : 100)
इसी लिए मुसलमानों में अपने पैग़म्बर को ‘‘मुहम्मद नबी-ए-रहमत” के नाम से याद करना लोकप्रिय रहा है।
अल्लाह ने भी आप (सल्ल॰) के इस गुण की चर्चा की है।
“हे पैग़म्बर, यह अल्लाह की बड़ी दयालुता है कि तुम इन लोगों के लिए बहुत नर्म स्वभाव के हो। अन्यथा यदि कहीं तुम क्रूर स्वभाव के कठोर हृदय के होते तो यह सब तुम्हारे आसपास से छंट जाते।” (क़ुरआन, 3:159)
दया की प्रेरणा देने वाली अनेक अहादीस नबी (सल्ल॰) से रिवायत की गई हैं—
“दया करने वालों पर अल्लाह मेहरबान होता है।” (तिरमिज़ी : 1847)
“तुम ज़मीन वालों पर मेहरबानी करो आसमान वाला तुम पर मेहरबानी करेगा।”
(अबू दाऊद : 4290)
“जो किसी पर दया नहीं करता उस पर कोई दया नहीं करता।” (बुख़ारी : 5538)
हदीसों में उल्लेख है कि—
“एक दुराचारी स्त्री ने एक प्यासे कुत्ते को पानी पिलाया और अल्लाह ने उसे क्षमा कर दिया।” (मुस्लिम : 154)
“इसी तरह एक स्त्री केवल इस कारण जहन्नम का पात्र बनी कि उसने एक बिल्ली को बांधकर रखा और वह बिल्ली उसी हालत में मर गई। (मुस्लिम : 416)
यह इस्लाम में सहानुभूति के महत्व के स्पष्ट प्रमाण हैं। जानवरों के बारे में कृपा करने की शिक्षा कितनी अनोखी है। जानवरों के साथ दयाभाव से किए गए व्यवहार भी गुनाहों का चाहे वे कितने बड़े ही क्यों न हों, प्रायश्चित (कफ़्फ़ारा) बन जाते हैं। हालांकि इन नेकियों के कारण गुनाह के औचित्य का प्रमाण नहीं मिलता।
क़ुरआन में एक गिरोह की निन्दा इन शब्दों में की गई है—
“किन्तु ऐसी निशानियां देख लेने के बाद भी अन्ततः तुम्हारे दिल कठोर हो गए, पत्थरों की तरह कठोर, बल्कि कठोरता में कुछ उनसे भी बढ़े हुए।” (क़ुरआन, 2:74)
इसी तरह अल्लाह एक गिरोह के बारे में फ़रमाता है—
“फिर यह उनका अपनी प्रतिज्ञा को भंग करना था जिसके कारण हमने उनको अपनी दयालुता से दूर फेंक दिया और उनके हृदय कठोर कर दिए।” (क़ुरआन, 5:13)
इस आयत में अल्लाह ने फ़रमाया कि उनके गुनाहों के दण्ड के रूप में उनके दिल सख़्त कर दिए गए।
इस्लाम ने जिस तरह अम्न एवं युद्ध के हालत में इन्सानों के साथ दया की शिक्षा दी है और बेज़बान जानवरों पर भी कृपा करने की प्रेरणा दी है इसी तरह उसने नम्रता की भी प्रेरणा दी है और सख़्ती के परिणाम से डराया है—
“जो नम्रता से वंचित कर दिया गया वह तमाम भलाइयों से वंचित कर दिया गया।”
(मुस्लिम : 2592)
“बेशक अल्लाह विनम्र है और विनम्रता को पसन्द फ़रमाता है और विनम्रता पर ऐसी नेमतें देता है जो सख़्ती पर नहीं देता।” (मुस्लिम : 2594)
“बेशक विनम्रता से वस्तु की शोभा बढ़ती है और जिस वस्तु से विनम्रता हटा ली जाए वह निकृष्ट हो जाएगी।” (मुस्लिम : 2594)
इस्लाम कथन और कर्म में सख़्ती और ज़ुल्म को दुरुस्त नहीं ठहराता। वह अपनी दावत के प्रचार में बुद्धिमत्ता, भले उपदेश और भले तरीक़ा से वाद-विवाद और वार्ता की प्रेरणा देता है। इसके यही आदेश दूसरों के साथ व्यवहार और मामलात में भी है।
“हे नबी, बुराई को उस ढंग से दूर करो जो उत्तम हो।” (क़ुरआन, 23:96)
इस्लाम केवल वैध कार्यों में ही शक्ति के उपयोग को दुरुस्त ठहराता है। इसके अनुसार किसी अपराध में क़ानून ही इन्सान के क़त्ल या माल के जुर्माने का निर्णय ले सकता है। इस्लाम हिंसा को युद्ध के दौरान केवल शत्रु के साथ वैध ठहराता है। अतः किसी मुसलमान के लिए जायज़ नहीं कि वह दूसरे के साथ ज़ुल्म में पहल करे किन्तु वह ज़ुल्म के जवाब में उसी के बराबर बदला ले सकता है। इस्लाम ने उसे आदेश दिया है कि वह ज़ुल्म के जवाब में अपने ऊपर किए गए ज़ुल्म से आगे न बढ़ जाए। इसके साथ ही इस्लाम ने क्षमा की प्रेरणा दी है।
“और यदि तुम लोग बदला लो तो बस उतना ही ले लो जितनी तुम पर ज़्यादती की गई हों किन्तु यदि तुम धैर्य से काम लो तो निश्चय ही यह धैर्यवानों ही के लिए अच्छा है।
(क़ुरआन, 16:126)
2. इस्लाम जिस तरह अत्याचार की निन्दा करता है उसी तरह वह आतंकवाद की भी निन्दा करता है। क्योंकि आतंकवाद भी अत्याचार ही है बल्कि उसमें वृद्धि है। अत्याचार यह है कि आप अपने विरोधी पक्ष पर अनुचित शक्ति का प्रयोग करें और आतंकवाद यह है कि आप शक्ति का प्रयोग एक ऐसे व्यक्ति पर करें जिसका आपके साथ कोई झगड़ा न हो जैसे—हवाई जहाज़ का अपहरण, किसी का अपहरण कर उसे बन्धक बनाना, पर्यटकों की हत्या आदि, जिन्हें न अपहरणकर्ता जानता है और न हत्यारा।
आतंकवाद का अर्थ है दूसरे को डराना, आतंक फैलाना, भय-ग्रस्त करना। इस तरह आतंक लोगों के बीच आतंक, डर और भय फैलाना तथा लोगों को अम्न व शान्ति से वंचित करना है। जबकि अम्न व शान्ति अल्लाह का अल्लाह के बन्दों पर सबसे बड़ा इनाम है। इसी ओर इशारा करते हुए अल्लाह ने फ़रमाया—
“अतः उनको चाहिए कि इस घर (कअबा) के प्रभु की पूजा-बन्दगी करें जिसने उन्हें भूख से बचाकर खाने को दिया।” (क़ुरआन, 106:3-4)
इन आयतों में अल्लाह की दो श्रेष्ठ नेमतों का उल्लेख हुआ है जो इन्सान की दो मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। ये दो नेमतें हैं—जीवित रहने के लिए आहार और भय के मुक़ाबला में अम्न।
एक समाज के लिए सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि इससे ये दोनों नेमतें छीन ली जाएं और उसे भूख और भय में ग्रस्त कर दिया जाए जैसा कि अल्लाह ने फ़रमाया—
“अल्लाह एक बस्ती की उपमा प्रस्तुत करता है। वह निश्चिंतता और परितुष्टि का जीवन व्यतीत कर रही थी और हर ओर से उसको बहुतायत के साथ रोज़ी पहुंच रही थी कि उसने अल्लाह की नेमतों के सम्बन्ध में अकृतज्ञता दिखानी आरम्भ कर दी। तब अल्लाह ने उसके निवासियों को उनकी करतूतों का यह मज़ा चखाया कि भूख और भय की आपदाएं उन पर छा गईं।” (क़ुरआन, 16:112)
हदीस में ‘अम्न’ को इन्सान की तीन मौलिक नेमतों में से एक कहा गया है। इन्सान अपने जीवन में आराम एवं चैन पाने के लिए इन नेमतों का ज़रूरतमन्द है और यह तीनों नेमतें हर व्यक्ति के लिए ख़ुशहाली और सौभाग्य की कुंजी है। आप (सल्ल॰) ने फ़रमाया—
“जिसकी सुबह इस हाल में हो कि उसका दिल चिंताओं से मुक्त हो और उसका शरीर बीमारियों से सुरक्षित हो और उसके पास एक दिन का भोजन हो तो मानो सारी दुनिया उसे सौंप दी गई।” (तिरमिज़ी : 2268)
अल्लाह ने क़ुरैश और मक्का वालों पर अपना एक उपकार यह बताया है कि उसने उनके लिए ‘हरम’ काबा को एक सुरक्षित और अम्न वाला शरण स्थल बना दिया जहां एक व्यक्ति अपने बाप के हत्यारे को अपने सामने देखते हुए भी उसके साथ बुरा नहीं कर सकता।
अल्लाह का इरशाद है—
“जिसने इसमें प्रवेश किया सुरक्षित हो गया।” (क़ुरआन, 3:97)
“क्या यह सत्य नहीं है कि हमने एक भयरहित ‘हरम’ को इनके लिए निवास स्थान बना दिया जिसकी ओर हर प्रकार के फल खिंचे चले आते हैं।” (क़ुरआन, 28:57)
“क्या ये देखते नहीं हैं कि हमने एक अभयपूर्ण ‘हरम’ (प्रतिष्ठित स्थान) बना दिया है हालांकि इनके चतुर्दिक लोग उचक लिए जाते हैं।” (क़ुरआन, 29:67)
जब हज़रत याक़ूब (अलैहि॰) अपने बेटों के साथ मिस्र गए तो हज़रत यूसुफ़-बिन- याक़ूब (अलैहि॰) ने इन शब्दों के साथ उनका स्वागत किया—
“चलो, अब नगर में चलो, अल्लाह ने चाहा तो निश्चिंत शान्तिपूर्वक रहोगे।”
(क़ुरआन, 12:99)
आख़िरत में अल्लाह की ओर से उसके नेक बन्दों के लिए तैयार की गई जन्नत की एक विशेषता यह है कि वह पूर्णरूप से अम्न व शान्ति का केन्द्र है। इसी लिए फ़रिश्ते जन्नत वालों का स्वागत इन शब्दों से करेंगे—
“प्रवेश करो इसमें सलामती के साथ निर्भयतापूर्वक।” (क़ुरआन, 15:46)
इसी तरह क़ुरआन में जन्नत वालों के बारे में कहा गया है—
“उनके लिए किसी भय और शोक का मौक़ा नहीं है।” (क़ुरआन, 2:62)
इसी लिए इस्लाम ने हर व्यक्ति के लिए अम्न की गणना शरीअत के मौलिक उद्देश्यों में की है। इसी तरह इस्लाम ने आम लोगों के अम्न को ख़तरा में डालने को सबसे कठोर अपराध ठहराया है। इसी लिए शरीअत ने चोरी करने वाले का दण्ड हाथ काटना निश्चित किया है। धन पर बलपूर्वक क़ब्ज़ा करने पर इस तरह के दण्ड का निर्धारण नहीं किया गया है हालांकि किसी का माल हड़पना एक कठोर अपराध है। चूंकि चोरी गुप्त रूप से होती है और इससे अम्न को ख़तरा पहुंचता है इसके विपरीत धन पर क़ब्ज़ा दिन में ऐलान करके होता है।
इसी तरह इस्लाम ने लूट, मार और डकैती को कठोर अपराध ठहराया है और ऐसा करने वालों को अल्लाह और रसूल से युद्ध करने वाला और धरती में बिगाड़ फैलाने वाला ठहराया है।
“जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ते हैं और धरती में इसलिए दौड़-धूप करते फिरते हैं कि बिगाड़ पैदा करें...।” (क़ुरआन, 5:33)
और इस अपराध का यह दण्ड निश्चित किया है—
“और उनका दण्ड यह �
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