हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰)
जीवन, चरित्र, सन्देश, क्रान्ति
●जीवनी ● चरित्र ● पैग़म्बरी (ईशदूतत्व) ● अनुकूल व प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ ● विरोध, यातना, क्रूरता, अत्याचार, प्रताड़ना की परिस्थिति ● बहिष्कार (बॉयकाट) ● मक्का से बाहर इस्लाम का पैग़ाम ● मदीना में इस्लाम का प्रचार ● पैग़म्बर की हत्या का फ़ैसला ● मदीना को प्र्रस्थान (हिजरत) ● मदीना में भव्य स्वागत ● मक्कावासियों की धमकी ● युद्ध-और बार-बार युद्ध ● युद्ध क्यों? रक्तपात क्यों? ● अद्भुत, अद्वितीय क्रान्ति ● कुछ आम शिक्षाएँ ● शिष्टाचार की शिक्षा ● पैग़म्बर (सल्ल॰) की शिक्षाओं के प्रभाव ● मुस्लिम समाज पर प्रभाव
इस्लाम के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰), अत्यंत लम्बी ईशदूत-श्रृंखला में एकमात्र ईशदूत हैं जिनका पूरा जीवन इतिहास की पूरी रोशनी में बीता। इस पहलू से भी आप उत्कृष्ट हैं कि आपकी पूरी ज़िन्दगी का विवरण, विस्तार के साथ शुद्ध, विश्वसनीय व प्रामाणिक रूप से इतिहास के पन्नों पर सुरक्षित है। जन्म से देहावसान तक, एक-एक बात का ब्यौरा; छोटी से बड़ी हर गतिविधि, हर कथनी-करनी और पूरा जीवन-वृत्तांत रिकार्ड पर है। संसार में कोई भी व्यक्ति, जो आपकी जीवनी, आपका जीवन-चरित्र, आपका संदेश और मिशन जानना चाहे तथा आप द्वारा लाई हुई अद्भुत, अद्वितीय, समग्र व सम्पूर्ण क्रान्ति का अध्ययन करना चाहे, और यह समझना चाहे कि 1400 से अधिक वर्षों से अरबों-खरबों लोग, एवं आज लगभग डेढ़ अरब (एक सौ पचास करोड़) लोग दुनिया भर में आप से सबसे ज़्यादा (अपने माता-पिता, संतान व परिजनों से भी ज़्यादा) प्रेम क्यों करते हैं, आप पर जान निछावर क्यों करते हैं; आपकी श्रद्धा से उनका सारा व्यक्तित्व ओत-प्रोत क्यों रहता है और आपके अनादर व मानहानि की छोटी-बड़ी किसी भी घटना पर अत्यंत व्याकुल और दुखी क्यों हो जाते हैं; और आख़िर क्या बात है कि डेढ़ हज़ार वर्ष के अतीत में, और वर्तमान युग में भी, ऐसे असंख्य लोग रहे हैं जो आपके ईशदूत्व पर ईमान न रखने (अर्थात् मुस्लिम समुदाय में न होने) के बावजूद आपकी महानता के स्वीकारी रहे तथा आपके प्रति श्रद्धा, सम्मान की भावना रखते आए हैं; आख़िर क्या बात है कि एक पाश्चात्य मसीही शोधकर्ता (माइकल हार्ट) पिछली लगभग 2-3 शताब्दियों के मानव-इतिहास से चुने हुए 100 महान व्यक्तियों में से, महात्म्य की कसौटी पर परखते हुए हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को प्रथम स्थान देता है; तो यह जानने के लिए उस व्यक्ति को विश्व के हर भाग में, संसार की लगभग तमाम प्रमुख भाषाओं में (और हमारे देश की सारी क्षेत्रीय भाषाओं में भी लिखित-प्रकाशित) सामग्री उपलब्ध है। (सल्ल॰=‘सल्ल-अल्लाहु अलैहि व सल्लम'-अर्थात-‘आप पर ईश्वर की अनुकंपा व सलामती हो'।)
जीवनी
मुहम्मद (सल्ल॰) अरब प्रायद्वीप (Arabian Penisula) में ‘हिजाज़' (अब सऊदी अरब) के मरुस्थलीय क्षेत्र में, सूखे पहाड़ों से घिरी एक घाटी ‘बक्का' में स्थित छोटे से शहर ‘मक्का' में 20 अप्रैल 571 ई॰ को सोमवार की सुबह पैदा हुए। आपके पिता ‘अब्दुल्लाह' और माता ‘आमिना' थीं। आप अरब के प्रतिष्ठित क़बीले ‘क़ुरैश' और प्रतिष्ठित ख़ानदान ‘बनी-हाशिम' से थे। जन्म से कुछ महीने पहले ही पिता का देहांत हो गया था। यूँ, आप जन्मजात अनाथ (यतीम) थे। छः वर्ष बाद माता का भी देहांत हो गया था। फिर आपका पालन-पोषण दादा ‘अब्दुल मत्तलिब' ने किया। आपकी आठ वर्ष की उम्र में दादा भी चल बसे। ईश्वर को यही मंज़ूर था कि आपका बचपन व लड़कपन रंज, ग़म और मानसिक आघातों को झेलते हुए बीते; विषम परिस्थितियों में आपके व्यक्तित्व की उठान हो और नवजवानी की अवस्था से ही जीवन एक ‘संघर्ष' बन जाए; क्योंकि जीवन का अगला पूरा चरण प्रतिकूल व विषम परिस्थितियों के बीच घोर संघर्ष में ही बीतना था। अब आपका पालन-पोषण आपके चचा ‘अबू-तालिब' ने किया। आपकी दो बहनें थीं जिनका कुछ वर्षों की आयु में देहांत हो गया था, भाई कोई न था।
आप जीविकोपार्जन के लिए तिजारत करते थे। शहर की एक प्रतिष्ठित महिला व्यापारी ‘ख़दीजा' ने आपको शादी का पैग़ाम दिया। वो दो बार की विधवा थीं, उम्र 40 वर्ष थी। आपकी उम्र 25 वर्ष थी। शादी हो गई। इनसे आपकी चार बेटियाँ हुईं-जै़नब, रुवै़$या, उम्मे कुल्सूम, फ़ातिमा। दो बेटे हुए, क़ासिम और अब्दुल्लाह; इनकी कम उम्र में ही मृत्यु हो गई। आपका देहावसान 63 चाँद्र-वर्ष (61 सौर-वर्ष) की उम्र में हुआ। मदीना नगर की मस्जिद में (जिसे मक्का से 723 ई॰ में इस नगर को प्रस्थान करने पर आपने बनाई थी) दक्षिण-पूर्वी कोने में आप (सल्ल॰) दफ़्न हैं।
चरित्र
हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) लड़कपन से ही बहुत शांत, मृदुल और सीधे-सादे, नेक स्वभाव के थे। समाज में पै$ली बुराइयों से सर्वथा दूर और अलग रहते थे। समाज में मूर्ति-पूजा व्याप्त थी लेकिन आपने कभी मूर्तिपूजा न की। ईश्वर को आप से, आगे चलकर एकेश्वरवाद का आह्वान कराना तथा मूर्तिपूजा का खण्डन कराना अभीष्ट था। आप सत्यवादी थे, ग़रीबों, अनाथों, दुखियारों, विधवाओं, असहायों की मदद करना आपके चरित्र का सबसे उभरा हुआ पहलू था। अत्यंत सादा जीवन बिताते, मोटा-झोटा पहनते, साधारण खाना खाते। ज़मीन पर चटाई पर सोते, घर-गृहस्ती के काम ख़ुद कर लेते। अमानतदार ऐसे थे कि नगर के लोग अपनी अमानतें आपके पास धरोहर रखवाया करते, यहाँ तक कि आगे चलकर जब पैग़म्बर की हैसियत से आपने एकेश्वरवाद का आह्नान दिया, मूर्तिपूजा और बहुदेववाद का खण्डन किया और इस कारणवश पूरा शहर मक्का आपको अपना ख़तरनाक दुश्मन मान बैठा, विरोध और प्रताड़नाओं की चक्की चल गई; बड़े-बड़े विरोधी और शत्रु भी अपनी अमानतें आपके पास ही रखवाते। क्षमाशीलता ऐसी थी, इतनी थी कि बड़े-बड़े शत्रुओं और कष्ट देने वालों एवं बुरा से बुरा अपमान करने वालों से भी बदला न लेते, क्षमा कर देते। पैग़म्बरी जीवन के, शुरू के 13 वर्षों तक घोर अपमान, यातनाएँ देने यहाँ तक कि जन्मभूमि मक्का को छोड़कर 450 किलोमीटर दूर शहर मदीना को प्रस्थान पर मजबूर कर देने, और वहाँ भी बार-बार युद्ध पर मजबूर कर देने वाले मक्कानिवासियों पर, जब 8 वर्ष बाद आपने विजय प्राप्त की और वह दिन प्रतिशोध व सज़ा-यातना का दिन था, आपने दो-एक को छोड़, सारे मक्कावासियों को आम क्षमादान (General Amnesty) प्रदान कर दिया। धर्ती-आकाश चकित रह गए महान चरित्र का यह रूप देखकर। मानव इतिहास आज तक भौंचक्का है आचरण के महात्म्य व उत्कृष्टता के इस दृश्य पर।
पैग़म्बरी (ईशदूतत्व)
चालीस वर्ष की उम्र को पहुँचते-पहुँचते आप में चिन्तन-मनन की ऐसी शक्ति पैदा हो गई जो आपको घर से लगभग दो-ढाई किलोमीटर दूरी पर स्थित एक पहाड़ी की गुफा तक ले गई। कई-कई रात-दिन आप वहाँ के शांत वातावरण में एकांतवास करते और सोचा करते कि जीवन क्या है? इस जीवन के बाद क्या है? ईश्वर है तो, परन्तु उसकी वास्तविकता क्या है? इन्सान पैदा किस लिए किया गया है? उचित जीवन-शैली क्या है? ईश्वर और मनुष्य के बीच संबंध क्या है, इसे वै$सा होना चाहिए? ईश्वर की उपासना क्या है, यह वै$से की जाए? मानवजाति का अभीष्ट क्या है, उसकी आख़िरी मंज़िल क्या है...आदि-आदि।
इसी अवस्था में एक दिन फ़रिश्ता जिब्रील के माध्यम से गुफा के अन्दर ही ईश प्रकाशना (वह्य, Divine Revelation) अवतरित हुई और क़ुरआन की पाँच आयतों (96%1-5) से ईशग्रंथ ‘क़ुरआन' का अवतरण आरंभ हुआ। उस समय आपकी उम्र 40 वर्ष 11 दिन थी। कुछ दिन बाद कुछ और आयतें (सूरः 74-मद्दस्सिर) अवतरित हुईं, इससे आप ‘ईशदूत' नियुक्त हुए। ईश्वर की ओर से आदेश आया कि: उठ खड़े हो, लोगों को (अधर्म, शिर्व$ अर्थात् बहुदेववाद व मूर्तिपूजा आदि के अनैचित्य तथा इनके लौकिक व पारलौकिक दुष्प्रभावों, हानियों व दुष्परिणामों की) चेतावनी दो, अल्लाह की महानता व महिमा बयान करो, अपना वस्त्र व शरीर हर प्रकार की अपवित्रता से पाक व पवित्र रखो, किसी पर एहसान जताने, उसे बाद में तंग करने, सताने, क्षुब्ध करने के लिए एहसान मत करो...।
आपका पैग़म्बराना आह्नान एकेश्वरवाद की ओर बुलाने और बहुदेववाद को छोड़ देने की शिक्षा से आरंभ हुआ और इसमें परलोकवाद की इस्लामी अवधारणा शामिल हो गई।
अनुकूल व प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ
इस पैग़म्बराना मिशन की कुछ अनुकूल प्रतिक्रिया हुई और अधिकतर प्रतिकूल और विरोध की प्रतिक्रिया। कुछ लोगों (स्त्रियों, पुरुषों, नवयुवकों) ने इस पुकार को स्वीकार करके इस्लाम ग्रहण कर लिया और मुहम्मद (सल्ल॰) के अधीन रहकर शिक्षा-दीक्षा तथा नैतिक प्रशिक्षण के मरहले से गुज़रते हुए दूसरों को इस्लाम का संदेश भी पहुँचाते रहे। बहुदेववादी बुतपरस्त समाज में एकेश्वरवादी तथा मात्रा एक ईश्वर की पूजा-उपासना व आज्ञापालन करने वाले समुदाय की संरचना होने लगी। उधर अधिकतर लोगों ने यह कहकर आपका और मुस्लिम समुदाय का विरोध शुरू कर दिया कि यह धर्म, हमारे पूर्वजों के धर्म से अलग, भिन्न, मुख़ालिफ़ और दुश्मन धर्म है। न हम इसे स्वीकार करेंगे, न दूसरों को ही स्वीकार करने देंगे, चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े, कितना भी आगे तक बढ़ना पड़े।
विरोध, यातना, क्रूरता, अत्याचार, प्रताड़ना की परिस्थिति
शुरू में तरह-तरह की लालच और अनेक प्रलोभनों से आप (सल्ल॰) को इस्लाम के प्रचार से रोकने की कोशिशें की गईं, फिर डराया-धमकाया गया, फिर अपमानित किया गया, रास्ते में काँटे डाले गए, ऊपर कूड़ा फेंका गया, इबादत की अवस्था में बकरी की ओझड़ी ऊपर डाल दी गई। गर्दन में चादर डालकर उसे ऐंठ कर दम घोंट कर मार डालने का प्रयास किया गया। एक बहादुर व्यक्ति आपको क़त्ल कर देने के लिए नंगी तलवार लेकर घर से निकल खड़ा हुआ, चचा (अभिभावक व संरक्षक ‘अबू-तालिब') पर ज़बरदस्त दबाव डाला गया कि वह बीच से हट जाएँ और आप (सल्ल॰) का ‘काम तमाम' कर दिया, अर्थात आपको ख़त्म कर दिया जाए। यह सब होता रहा और आप सब्र, बर्दाश्त व धैर्य का पहाड़ बने, मानवता-हित में जुटे रहे, अल्लाह से रो-रोकर, सत्य पथ पर अडिग रहने और दुश्मनों के, सन्मार्ग पर आने की दुआ करते रहे।
उधर जो लोग इस्लाम स्वीकार कर लेते उन्हें मारा-पीटा जाता, तेज़ तपती रेत पर नंगी पीठ लिटा कर छाती पर भारी पत्थर रख दिया जाता, कोड़े बरसाए जाते, चटाई में लपेट कर धुआँ दिया जाता, स्वयं उनके परिवारजन ही उनका खाना-पीना बन्द कर देते, गालियाँ दी जातीं, मुँह पर थूका जाता लेकिन आप (सल्ल॰) की पैग़म्बरी पर विश्वास, ईश्वर से व्यक्तिगत मानसिक, आध्यात्मिक व भावुक संबंध तथा ईमान का स्वाद, नव-मुस्लिमों को ये यातनाएँ व अत्याचार-अपमान सब्र के साथ बर्दाश्त करने का धैर्य व संकल्प प्रदान करता रहा। इस्लाम इन प्रतिकूलताओं के बीच पनपता, पै$लता, बढ़ता, लोगों के मन-मस्तिष्क में घर करता उन्नति की ओर अग्रसर रहा। साथ ही जु़ल्म की चक्की चलती रही। जब स्थिति आम लोगों के लिए असह्य हो गई तो आप (सल्ल॰) ने साथियों को अनुमति दी कि वे हबशा (इथोपिया) चले जाएँ। कुछ दिन बाद हबशा को दूसरा पलायन हुआ। 82 मर्द, 18 औरतें मक्का छोड़ कर हबशा चली गईं। विरोधियों ने वहाँ तक पीछा किया लेकिन मुसलमानों को वहाँ से निकलवा लाने में असफल रहे।
बहिष्कार (बॉयकाट)
इस सब के बाद आपका पूर्ण बहिष्कार (Boycott) कर दिया गया। आपको, आपके साथियों (मर्दों, औरतों) को, उनके परिवारजनों को, और ख़ानदान के सारे लोगों को, चाहे वे मुस्लिम हों या ग़ैर-मुस्लिम, शहर के बाहर की एक घाटी में शरण लेने पर विवश कर दिया गया। यह हुक्मनामा लिखकर काबा पर लगा दिया गया कि कोई भी व्यक्ति उन लोगों से मिलेगा नहीं, खाने-पीने का सामान उन तक पहुँचने न देगा, सारे नाते-रिश्ते और मानवीय संबंध तोड़ दिए जाएँगे। इस स्थिति में आप और मुसलमानों ने कुछ दिन, सप्ताह, या महीने नहीं, पूरे तीन साल व्यतीत किए। घास खाई जाती, जूते का चमड़ा उबाल कर उसका पानी पिया जाता। नन्हे-नन्हे बच्चे बिलखते, छोटे-छोटे बच्चे भूख से रोते-चिल्लाते तो रातों को इनकी आवाज़ें मक्का-निवासियों के कानों में भी पड़तीं लेकिन पत्थर जैसे कठोर दिलों में न उतरतीं। अन्ततः कुछ लोगों में इन्सानियत ने ज़ोर मारा और वह हुक्मनामा नोचकर फाड़ डाला गया, आप (सल्ल॰) साथियों समेत शहर वापस आ गए। इसी बीच जबकि पैग़म्बरी का दसवाँ साल था, आप (सल्ल॰) पर एक बार फिर ग़म के दो पहाड़ टूटे। आप के संरक्षक अभिभावक ‘अबू तालिब' का देहांत हो गया और दो माह बाद जीवनसंगिनी ‘ख़दीजा' भी चल बसीं।
आपने देखा कि मक्का की धरती, अपने कुछ सपूतों को इस्लाम की शरण में देकर, और अधिक फ़सल देने से असमर्थ, बंजर हो गई है तो मक्का से बाहर की दुनिया पर ध्यान केन्द्रित किया।
मक्का से बाहर इस्लाम का पैग़ाम
पैग़म्बरी के दसवें साल (मई अंत, या जून आरंभ, 619 ई॰ में) आप (सल्ल॰) ने मक्का से लगभग 90 किलोमीटर दूर स्थित शहर ‘ताइफ़' का सफ़र पैदल तय किया, कि वहाँ के लोगों को इस्लाम का संदेश दें। आशा के विपरीत, उन लोगों ने आपके पैग़ाम का इन्कार किया, आपकी हँसी उड़ाई, आप पर पत्थरों की ऐसी बौछार की कि शरीर लहू-लुहान हो गया यहाँ तक कि ख़ून बह-बहकर जूतियों में जम गया। लौंडों के हवाले कर दिया जो आप पर ठट्ठे लगाते, शोर मचाते, तालियाँ पीटते, सीटी बजाते, पत्थर मारते, धक्का देकर गिरा देते, आप उठकर चलने लगते तो फिर धकेल कर गिरा देते। आप दस दिन तक ताइफ़ वालों को सिर्फ़ एक बात समझाने का प्रयास करते रहे कि मेरे संदेश में मेरा कोई स्वार्थ नहीं है। ईश्वर को ‘मात्र एक' मान लो, परलोक-जीवन पर विश्वास कर लो, मैं तुम्हारे ही हित में एक पैग़म्बर की हैसियत से तुम्हें ईशमार्ग पर बुला रहा हूँ। लेकिन उन अभागों ने न सिर्प़$ इसे माना नहीं बल्कि एक पैग़म्बर को इतना सताया जिसकी कोई मिसाल पैग़म्बरों के इतिहास में नहीं मिलती। (बाद में कभी आपने अपनी एक पत्नी से कहा कि ताइफ़ जैसे सख़्त दिन मुझ पर कभी नहीं गुज़रे)।
आपने एक बाग़ में शरण लिया, अल्लाह से, अपनी कमज़ोरी व बेबसी का शिकवा करके उसके प्रकोप से पनाह की दुआ माँगी और अपनी यह कामना और संकल्प अल्लाह के समक्ष पेश किया कि मैं सिर्फ़ तेरी प्रसन्नता का अभिलाषी हूँ और तेरी ही शरण चाहता हूँ। आपको वह्य हुई कि आप चाहें तो ताइफ़ वालों को भूकंप द्वारा अगल-बग़ल की पहाड़ियों के बीच पीस कर, विनष्ट करके रख दिया जाए। साक्षात् दया, करुणा, क्षमाशीलता-हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) का उत्तर था: नहीं मेरे अल्लाह, इन पर प्रकोपित न हो, ये मुझे और मेरे संदेश को समझते नहीं; ये नहीं, तो इनकी अगली सन्तानें इसे समझ लेंगी......।
मदीना में इस्लाम का प्रचार-प्रसार
हर साल हज के अवसर पर शहर मदीना (मक्का से लगभग साढ़े चार सौ किलोमीटर उत्तर में स्थित नगर, जो आपका नानिहाली नगर भी था) से सैकड़ों लोग हज करने मक्का आते थे। रात के अंधेरे में आप उनके कैम्पों में जाते और इस्लाम का संदेश देते। जुलाई सन् 620 ई॰ में छः लोगों ने इस्लाम क़बूल कर लिया और यह बात तय पाई कि वे वापस जाकर मदीना में इस्लाम का प्रचार करेंगे। अगले साल हज (जुलाई 621 ई॰) में इन पाँच व्यक्तियों के साथ सात और लोग (सबके नाम इतिहास के पन्नों पर अभिलिखित हैं।) आप से मिले और इस्लाम क़बूल किया। अगले साल (जून 622 ई॰) मक्का से 75 मुसलमान हज के लिए आए और इस्लाम व पैग़म्बर से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातों का संकल्प किया। उनके मदीना वापस जाने के बाद आपने अपने साथियों को मदीना जाकर बस जाने की अनुमति दे दी। जब वे लोग अपनी जन्म भूमि, अपना शहर, वतन, घर-बार छोड़कर जाने लगे तो उन्हें बहुत सताया गया। नगर मक्का में हाहाकार मच गई।
पैग़म्बर की हत्या का फ़ैसला
मक्का में 12 सितम्बर 622 ई॰, वृहस्पतिवार, दोपहर से पहले मक्का के सारे क़बीलों के प्रतिनिधियों की (उनके नाम इतिहास के रिकार्ड पर हैं) बैठक हुई। इस्लाम को रोकने और आप (सल्ल॰) को इस्लाम के आह्वान से बाज़ रखने के कई सुझाव
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