हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन-आचरण का...
● ईश्वरीय मार्गदर्शन की ज़रूरत ● नबियों की पैरवी की ज़रूरत ● मुहम्मद (सल्ल॰) के सिवा दूसरे नबियों से हिदायत न मिलने का कारण ● यहूदी धर्म के ग्रंथों और नबियों का हाल ● हज़रत ईसा और ईसाई धर्म की किताबों का हाल ● ज़रदुश्त का जीवन-आचरण और शिक्षाओं का हाल ● बौद्ध धर्म की स्थिति ● वैदिक धर्म की स्थिति ● सिर्प़$ मुहम्मद (सल्ल॰) का जीवन-आचरण और शिक्षाएँ सुरक्षित हैं ● कु़रआन का अति सुरक्षित ईश-ग्रंथ होना ● रसूल (सल्ल॰) के जीवन-आचरण की प्रामाणिकता ● मुहम्मद (सल्ल॰) की ज़िन्दगी का हर पहलू स्पष्ट और मालूम है ● मुहम्मद (सल्ल॰) का सन्देश तमाम इन्सानों के लिए है ● रंग व नस्ल की संकीर्णताओं का बेहतरीन इलाज ● ईश्वर के एक होने की व्यापक धारणा ● ‘रब’ की बन्दगी का आह्वान ● रसूल के आज्ञापालन का आह्वान ● अल्लाह के बाद आज्ञापालन का अधिकारी अल्लाह का रसूल है ● आज़ादी का सच्चा चार्टर ● ख़ुदा के समक्ष जवाबदेही का विचार ● महम्मद (सल्ल॰) के मार्गदर्शन का प्रभाव
प्रस्तुत विषय पर अगर तार्किक क्रम के साथ लिखा जाए, तो सबसे पहले हमारे सामने यह सवाल आता है कि एक नबी के जीवन-आचरण का ही सन्देह क्यों? किसी और का सन्देश क्यों नहीं? दूसरे नबियों में से भी सिर्फ़ हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन-आचरण का सन्देश, दूसरे नबियों और धार्मिक नेताओं के जीवन-आचरण का सन्देश क्यों नहीं? इस प्रश्न पर शुरू ही में विचार करना इसलिए ज़रूरी है कि हमारा मन इस बात पर पूरी तरह संतुष्ट हो जाए कि वास्तव में हम पुराने और नए, हर ज़माने के किसी नेता के जीवन-आचरण से नहीं, बल्कि एक नबी के जीवन आचरण से मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं और किसी दूसरे नबी या धार्मिक गुरु के जीवन मंे नहीं, बल्कि मुहम्मद (सल्ल॰) के जीवन में ही हम को वह सही और पूर्ण मार्गदर्शन मिल सकता है, जिसके हम सच में मुहताज हैं।
● ईश्वरीय मार्गदर्शन की ज़रूरत
यह एक ऐसी सच्चाई है, जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि ज्ञान का स्रोत ईश्वर है, जिसने इस सृष्टि की रचना की है और इसमें इन्सान को पैदा किया है। उसके सिवा सृष्टि की सच्चाइयों का और स्वयं मानव-स्वभाव और उसकी वास्तविकता का ज्ञान और किस को हो सकता है? रचयिता ही तो अपनी रचनाओं को जान सकता है, रचना अगर कुछ जानेगी तो रचयिता के बताने ही से जानेगी, उसके पास ख़ुद अपना कोई साधन ऐसा नहीं है, जिससे वह हक़ीक़त को जान सके। इस मामले में दो क़िस्म की चीज़ों का अन्तर अच्छी तरह समझ लेना चाहिए, ताकि बात गड्ड-मड्ड न होने पाए—
एक क़िस्म की चीज़ें वे हैं जिनकी आप इन्द्रियों द्वारा अनुभूति कर सकते हैं और उनसे प्राप्त जानकारियों को सोच-विचार, तर्क, अनुभव आदि ही सहायता से क्रमागत बनाकर नए-नए निष्कर्ष निकाल सकते हैं। इस प्रकार की चीज़ों के बारे में अलौकिक जगत से किसी शिक्षा के आने की ज़रूरत नहीं। यह आपकी अपनी खोज, आपके अपने चिन्तन, और आपकी अपनी गवेषणता का क्षेत्रा है। इसे आप पर छोड़ा गया है कि अपने आसपास की दुनिया में पायी जाने वाली चीज़ों को ढूँढ़-ढूँढ़कर निकालें, उनमें काम करने वाली शक्तियों को मालूम करें, उनके भीतर कार्यशील क़ानूनों को समझें और विकास-प्रथा पर आगे बढ़ते चले जाएँ। यद्यपि इस मामले में भी आपके पैदा करने वाले ने आपका साथ नहीं छोड़ दिया है, वह इतिहास के मध्य बड़े अनजाने ढंग से एक क्रम के साथ अपनी पैदा की हुई दुनिया से आपका परिचय कराता रहा है, जानकारी के नए-नए द्वार आप पर खोलता रहा है और समय-समय पर अन्तर्ज्ञान के रूप में किसी न किसी इन्सान को ऐसी बात सुझाता रहा है, जिससे वह कोई नई चीज़ ईजाद या कोई नया क़ानून मालूम कर सकता है, लेकिन बहरहाल है यह मानव-ज्ञान का क्षेत्र, जिसके लिए किसी नबी या किसी किताब (ग्रंथ) की ज़रूरत नहीं है और इस क्षेत्रा में जो जानकारियाँ चाहिएँ, उन्हें हासिल करने के साधन इन्सान को जुटा दिए गए हैं।
दूसरी क़िस्म की वे चीजें हैं, जो हमारी इन्द्रियों की पहुँच से परे है, जिनकी अनुभूति हम किसी तरह भी नहीं कर सकते, जिन्हें न हम तोल सकते हैं, न नाप सकते हैं, न अपने ज्ञान के साधनों में से किसी साधन का उपयोग करके उनको मालूम कर सकते हैं। दार्शनिक और वैज्ञानिक उनके बारे में अगर कोई राय बनाते हैं तो वह मात्रा अटकल पर आधारित होती है, जिसे ‘ज्ञान’ नहीं कहा जा सकता। ये आख़िरी सच्चाइयाँ (Ultimate Realities) हैं, जिनके बारे में तर्कयुक्त सिद्धांतों को स्वयं वे लोग भी यक़ीनी नहीं कर सकते, जिन्होंने उन सिद्धांतों को पेश किया है और अगर वे अपने ज्ञान की सीमितताओं को जानते हों, तो उन पर न ख़ुद ईमान ला सकते हैं, न किसी को ईमान लाने के लिए कह सकते हैं।
● नबियों की पैरवी की ज़रूरत
इस क्षेत्र में ज्ञान अगर पहुँचता है, तो केवल अल्लाह की हिदायत (ईश्वरीय मार्गदर्शन) से पहुँचता है, क्योंकि वही तमाम सच्चाइयों का जानने वाला है, और जिस माध्यम से अल्लाह इन्सान को यह ज्ञान देता है, वह वह्य है, जो सिर्फ़ नबियों पर आती है। अल्लाह ने आज तक कभी यह नहीं किया कि एक किताब छाप कर हर इन्सान के हाथ में दे दी हो और उससे कहा हो कि इसे पढ़कर ख़ुद मालूम कर ले कि तेरी और सृष्टि की वास्तविकता क्या है और उस वास्तविकता की दृष्टि से दुनिया में तेरी क्या कार्य-नीति होनी चाहिए। इस ज्ञान को इन्सानों तक पहुँचाने के लिए उसने हमेशा नबियों को ही माध्यम बनाया है, ताकि वे इस ज्ञान की शिक्षा देकर ही न हर जाएँ, बल्कि उसे समझाएँ, उसके अनुसार अमल भी करके दिखाएँ, उसके ख़िलाफ़ चलने वालों को सीधे रास्ते पर लाने की कोशिश भी करें और उसे अपना लेने वालों को एक ऐसे समाज के रूप में सुसंगठित भी करें, जिसके जीवन का हर विभाग इस ज्ञान का व्यावहारिक प्रतीक हो।
इस संक्षिप्त विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हम मार्गदर्शन के लिए केवल एक नबी के जीवन-आचरण ही के मुहताज हैं, कोई ग़ैर-नबी अगर नबी की पैरवी करने वाला न हो, तो भले ही वह अपार ज्ञानी और महापंडित हो, हमारा मार्गदर्शक नहीं हो सकता, क्योंकि उसके पास सच्चाई का ज्ञान नहीं है और जिसे सच्चाई का ज्ञान न हो, वह हमें कोई सही और सच्ची जीवन-व्यवस्था नहीं दे सकता।
● मुहम्मद (सल्ल॰) के सिवा दूसरे नबियों से हिदायत न मिलने का कारण
अब इस प्रश्न को लीजिए कि जिन बुजु़र्गों को हम नबियों की हैसियत से जानते हैं और जिन धार्मिक गुरुओं के बारे में सोचा जा सकता है कि शायद वे नबी हों, उनमें से हम सिर्फ़ एक मुहम्मद, अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ही के जीवन-आचरण से क्यों सन्देश प्राप्त करने की कोशिश करते हैं? क्या यह किसी क़िस्म के तास्सुब और पक्षपात की वजह से है या इसका कोई उचित कारण है?
वास्तविकता यह है कि इसका एक अत्यन्त उचित कारण है। जिन नबियों का उल्लेख क़ुरआन में किया गया है, उनको यद्यपि हम यक़ीनी तौर पर नबी मानते हैं, लेकिन उनमें से किसी की शिक्षा और किसी का जीवन-आचरण भी हम तक किसी प्रामाणिक तथा विश्वसनीय माध्यम से नहीं पहुँचा है कि हम उसका पालन कर सकें। हज़रत नूह, हज़रत इब्राहीम, हज़रत इसहाक़, हज़रत यूसुफ़, हज़रत मूसा, और हज़रत ईसा (अलैहिमुस्सलाम) निस्सन्देह नबी थे और वे लोग भी नबी थे जो अन्य क़ौमों के मार्गदर्शन के लिए ईश्वर ने नियुक्त किए (क़ुरआन, 13:7) किन्तु उनके नाम निश्चित रूप से (क़ुरआन में उल्लिखित करके) हमें ईश्वर द्वारा बताए नहीं गए। और हम उन सब पर ईमान रखते हैं, मगर उन पर अवतरित होने वाला कोई ग्रंथ आज सुरक्षित रूप में मौजूद नहीं है कि उससे हम मार्गदर्शन प्राप्त कर सकें और उनमें से किसी की ज़िन्दगी के हालात भी ऐसे सुरक्षित तथा विश्वसनीय तरीके़ से हम तक नहीं पहुँचे हैं कि हम अपने व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन के विभिन्न विभागों में उनको अपना मार्गदर्शक बना सकें। अगर इन सारे नबियों की शिक्षाओं और जीवन-आचरण पर कोई व्यक्ति कुछ लिखना चाहे तो कुछ पन्नों से अधिक नहीं लिख सकता और वह भी सिर्फ़ कु़रआन की मदद से, क्योंकि क़ुरआन के सिवा उनके बारे में कोई प्रामाणिक सामग्री मौजूद नहीं है।
● यहूदी धर्म के ग्रंथों और नबियों का हाल
हज़रत मूसा और उनके बाद आने वाले नबियों और उनकी शिक्षाओं के बारे में कहा जाता है कि वे बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट (पुराना नियम) में है। लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से तनिक बाइबल का जायज़ा लेकर देखिए। असल तौरात, जो हज़रत मूसा (अलैहि॰) पर अवतरित हुई, छठी सदी ईसा पूर्व में बैतुल-मक़दिस की तबाही के वक़्त नष्ट हो चुकी थी और उसी के साथ दूसरे उन नबियों की किताबें भी नष्ट हो गई थीं, जो उस समय से पहले हो गुज़रे थे। पाँचवीं सदी ईसा पूर्व में जब ‘बनी-इस्राईल’ (यहूदी) बाबिल (Babylon) की क़ैद से रिहा होकर फ़िलिस्तीन पहुँचे तो हज़रत उज़ैर ने कुछ दूसरे बुजु़र्गों की मदद से हज़रत मूसा (अलैहि॰) के जीवन-आचरण और ‘बनी-इस्राईल’ के इतिहास को तैयार किया और उसी में तौरात की उन आयतों को भी मौके़ के अनुसार दर्ज कर दिया जो उन्हें और उनके मददगारों को मिल सकीं।
उसके बाद चौथी सदी ईसा पूर्व से लेकर दूसरी सदी ईसा पूर्व तक विभिन्न लोगों ने (जो न जाने कौन थे) उन नबियों की किताबों को (न मालूम किस तरह) लिख डाला, जो उनसे कई सदी पहले गुज़र चुके थे, जैसे 300 ईसा पूर्व में हज़रत यूनुस के नाम से एक किताब किसी आदमी ने लिखकर बाइबल में दर्ज कर दी, हालाँकि वह आठवीं सदी ईसा पूर्व के नबी थे। ज़बूर हज़रत दाऊद (अलैहि॰) की मृत्यु के पाँच सौ वर्ष बाद लिखी गई और उसमें हज़रत दाऊद (अलैहि॰) के अलावा लगभग एक सौ दूसरे कवियों की कविताएँ भी शामिल कर दी गईं, जो मालूम नहीं किस तरह ज़बूर तैयार करने वालों को पहुँची थीं। हज़रत सुलेमान (अलैहि॰) की मृत्यु पूर्व ईसा 933 में हुई और सुलेमानी ‘कहावतें’ 250 ईसा पूर्व में लिखी गईं और उसमें दूसरे बहुत से ज्ञानियों के कथन शामिल कर दिए गए।
तात्पर्य यह कि बाइबल की किसी भी किताब की प्रामाणिकता उन नबियों में से किसी तक भी नहीं पहुँचती, जिससे वह जोड़ दी गयी है। इस पर आगे की बात यह है कि इब्रानी बाइबल की ये किताबें भी सन् 70 ई॰ में बैतुल मक़दिस की दूसरी तबाही के वक़्त नष्ट हो गईं और उनका केवल यूनानी अनुवाद बाक़ी रह गया, जो 258 ईसा पूर्व से पहली सदी ईसा पूर्व तक किया गया था। इब्रानी बाइबल को दूसरी सदी ईसवी में यहूदी विद्वानों ने उन मस्विदों की मदद से लिख डाला, जो बचे रह गये थे। उसका प्राचीनतम संस्करण जो अब पाया जाता है 916 ई॰ का लिखा हुआ है। उसके सिवा और कोई इब्रानी प्रति अब मौजूद नहीं है। मृत सागर (Dead Sea) के क़रीब क़ुमरान की गुफ़ा में जो इब्रानी अभिलेख मिले हैं, वे भी अधिक से अधिक दूसरी और पहली सदी ईसा पूर्व के लिखे हुए हैं और उनमें बाइबल के सिर्प़$ कुछ बिखरे टुकड़े ही पाए जाते हैं। बाइबल की पहली पाँच किताबों का जो संग्रह सामरियों के यहाँ मिलता है, उसका प्राचीनतम संस्करण ग्यारहवीं सदी ईसवी का लिखा हुआ है। यूनानी अनुवाद जो दूसरी और तीसरी सदी ईसा पूर्व में किया गया था, उसमें बहुत ज़्यादा ग़लतियाँ भरी हुई थीं और उस अनुवाद से लैटिन भाषा का अनुवाद दूसरी और तीसरी सदी ईसवी में हुआ। हज़रत मूसा (अलैहि॰) और बाद के ‘बनी-इस्राईल’ के नबियों के हालात और उनकी शिक्षाओं के बारे में इस सामग्री को आख़िर किस कसौटी पर परख कर प्रामाणिक कहा जा सकता है।
इसके अलावा यहूदियों में कुछ सीना-ब-सीना बातें भी पायी जाती थीं, जिन्हें जु़बानी क़ानून कहा जाता था। यह तेरह-चौदह सौ वर्ष तक तो अलिखित रहीं, दूसरी सदी ईसवी के आख़िर और तीसरी सदी के आरंभ में रिब्बी यहूद-इब्ने-शम्ऊन ने उनको ‘मिश्ना’ के नाम से लिखित प्रारूप बना दिया। यहूदियों के फ़िलिस्तीनी विद्वानों ने उनकी टीकाएँ हल्क़ा के नाम से और बाबिली उलेमा ने हग्गादा के नाम से तीसरी और पाँचवीं सदी में लिखीं और इन्हीं तीन किताबों का संग्रह तलमूद कहलाता है। इनके किसी कथन का कोई प्रमाण नहीं है, जिनसे मालूम हो सके कि यह किन लोगों से किन लोगों तक पहुँचीं।
● हज़रत ईसा और ईसाई धर्म की किताबों का हाल
कुछ ऐसा ही हाल हज़रत ईसा के जीवन-आचरण और शिक्षाओं का है। असल इंजील, जो ख़ुदा की तरफ़ से वह्य (ईशप्रकाशना Divine Revelation) के ज़रिए उन पर नाज़िल हुई थी, उसे उन्होंने जु़बानी ही लोगों को सुनाया और उनके शिष्यों ने भी जु़बानी ही उसे दूसरों तक इस तरह पहुँचाया कि आपके हालात और इंजील की आयतें सबको गड्ड-मड्ड कर दिया। उनमें से कोई चीज़ भी मसीह (अलैहि॰) के ज़माने में या उनके बाद लिखी ही नहीं गई। लिखने का काम उन ईसाइयों ने किया जिनकी भाषा यूनानी थी, हालाँकि हज़रत ईसा की भाषा सुरयानी या आरामी थी और उनके शिष्य भी यही बोली बालते थे। भाषा बोलने-लिखने वाले बहुत से लेखकों ने उन कथनों को आरामी भाषा में सुना और यूनानी में लिखा। उन लेखकों की लिखी हुई पुस्तकों में से कोई भी सन् 70 ई॰ से पहले की नहीं है और उनमें से किसी ने भी किसी घटना या हज़रत ईसा के किसी कथन का कोई प्रमाण नहीं दिया, जिससे मालूम होता कि उन्होंने कौन-सी बात किस से सुनी थी, फिर इनकी लिखी हुई किताबें भी सुरक्षित नहीं रहीं। बाइबल के न्यू टेस्टामेंट (नया नियम) की हज़ारों यूनानी प्रतियाँ जमा की गईं। मगर इनमें से कोई भी चौथी सदी ईसवी से पहले की नहीं है, बल्
8802281236
ई मेल : islamdharma@gmail.com