एकेश्वरवाद का मानव-जीवन पर प्रभाव
ख़ुदा को एक और अकेला मानना
एकेवरवाद के मानने का मतलब निम्नलिखित बातों का मानाना है—
मनुष्य और सृष्टि का बनानेवाला और चलानेवाला एक ख़ुदा है।
वह अत्यन्त शक्तिशाली है, सब उसके सामने मजबूर और मुहताज हैं, उसकी मर्ज़ी के बिना कोई कुछ नहीं कर सकता।
वह किसी पर निर्भर नहीं है, सब उसपर निर्भर रहते हैं।
उसकी न कोई औलाद है और न वह ख़ुद किसी की औलाद है।
वह अकेला और एकता है, कोई उसका साझी नहीं।
उसका न कोई आदि है, न अन्त। जब कुछ नहीं था, तो वह था। वह हमेशा से था, हमेशा रहेगा।
वही सबका पालनहार और उपास्य (रब और माबूद) है। सब उसके दास हैं।
वह सब कुछ जाननेवाला है। वह कुछ भी कर सकता है। उसके लिए कुछ असम्भव नहीं।
वह अत्यन्त कृपा करनेवाला और दया करनेवाला है। वह न्याय और इन्साफ़ करनेवाला है।
जो कुछ है सब उसी का पैदा किया हुआ है।
उस जैसा कोई नहीं। वह बिल्कुल आज़ाद है। सब उसके सामने मजबूर हैं।
वह तमाम ताक़त का मालिक, सबसे ज़्यादा शक्तिशाली व ताक़तवर है।
ख़ुदा सब कुछ जानता है। वह हर जगह मौजूद है। कोई भी चीज़ उसके कंट्रोल से बाहर नहीं।
वह हमें देखता है, सुनता है, वह हमसे क़रीब है। मगर हम उसे नहीं देख सकते।
वह निस्पृह (बेनियाज़) है। उसे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं। मगर इन्सान को उसकी ज़रूरत है।
वही और सिर्फ़ वही इबादत (उपासना) के लायक़ है। कोई उस जैसा नहीं। वह हमें ज़िन्दगी देता है और वही हमें मौत देता है।
सफलता और असफलता, सम्मान और अपमान, अमीरी और ग़रीबी, ख़ुशी व दुख, स्वास्थ्य और रोग, सबका देनेवाला या न देनेवाला या देकर वापस लेनेवाला वही एक ख़ुदा है।
व्यक्ति और समाज की सभी बुराइयों की जड़ एक और सिर्फ़ एक है और वह है एकेश्वरवाद को न मानना अर्थात् यह नहीं मानना कि ख़ुदा है, देख रहा है और सबको उसका सामना करना है। एकेश्वरवाद के सिलसिले में समाज में चार तरह के लोग पाए जाते हैं—
पहला वर्ग उन लोगों का है जो एक ख़ुदा का इन्कार करते हैं।
दूसरा वर्ग उन लोगों का है जो एक ख़ुदा का ज़बान से इक़रार करते हैं, मगर दिल में यक़ीन नहीं रखते।
तीसरा वर्ग उन लोगों का है जो ज़बान से एक ख़ुदा का इक़रार करते हैं और दिल में यक़ीन भी रखते हैं, मगर उसके आदेशों को नहीं मानते।
चौथा वर्ग उन लोगों का है जो ज़बान से एक ख़ुदा का इक़रार करते हैं और दिल में यक़ीन भी रखते हैं और उसके आदेशों को भी मानते हैं। एकेश्वरवाद को मानने का लाभ तब होता है, जब एक और सिर्फ़ एक ख़ुदा को माना जाए। इस बात को हम एक उदाहरण से समझ सकते हैं। मान लीजिए, हमारे पास ज़मीन का एक टुकड़ा है जो झाड़-झंकार, कंकर-पत्थर से भरा हुआ है और हम वहां गेहूं उगाना चाहते हैं। अगर हम ज़मीन तैयार किए बिना उसमें बहुत उत्तम क़िस्म का बीज डाल दें, तो हमें अच्छी फ़सल की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
हमें सबसे पहले झाड़-झंकार और कंकर-पत्थर से ज़मीन को साफ़-सुथरा करना चाहिए और अच्छी तरह ज़मीन तैयार करनी चाहिए। फिर उसमें बीज बोना चाहिए, तब हम अच्छी फ़सल की उम्मीद कर सकते हैं।
यही मामला इन्सान के मन-मस्तिष्क का भी है। अगर उसमें एक ख़ुदा के अलावा दूसरे ख़ुदा भी मौजूद हों, तो फिर एकेश्वरवाद का पूरा लाभ नहीं मिलता और उसके पूरे प्रभाव इन्सान की ज़िन्दगी पर नहीं पड़ते। एकेश्वरवादका मानना इन्सान की ज़िन्दगी में केन्द्रीयता लाना है, न कि संकट और बिखराव।
मानव जीवन पर एकेश्वरवाद के प्रभाव
इस्लाम के अनुसार, इन्सान एक इकाई (Unit) है। उसकी ज़िन्दगी के सभी पहलू एक-दूसरे से मिले हुए और परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हुए (Interrelated) हैं। इन्सान के सामाजिक जीवन का आर्थिक जीवन पर, आर्थिक का राजनैतिक पर, राजनैतिक का सामाजिक पर, सामाजिक का मनोवैज्ञानिक पर, मनोवैज्ञानिक का नैतिक जीवन पर प्रभाव पड़ता है। केवल किसी एक पहलू के सही होने से इन्सान का सही होना सम्भव नहीं।
इन्सान जब एकेश्वरवाद अर्थात् एक और यकता ख़ुदा को मानता है, तो उसकी ज़िन्दगी के सभी पहलू प्रभावित होते हैं। एकेश्वरवाद के प्रभाव इन्सान के जीवन के सामाजिक पहलू, व्यक्तिगत पहलू, आर्थिक पहलू, नैतिक पहलू, राजनैतिक पहलू, मनोवैज्ञानिक पहलू अर्थात् इन्सान की ज़िन्दगी के हर पहलू पर पड़ते हैं।
इन्सान के ध्यान का एक बिन्दु पर केन्द्रित होना
एकेश्वरवाद का मानना इन्सान को एकाग्रचित्त (Single minded) बनाता है। इस तरह इन्सान की सभी योग्यताएं बढ़ जाती हैं। जैसे सूरज की किरणें बिखरी होती हैं, मगर जब वे एक उन्नतोदर दर्पण या मुहद्दब शीशे (Sunglass) में से पास होती हैं, तो एक बिन्दु पर केन्द्रित होकर आग लगा देती हैं या इसे दूसरे उदाहरण द्वारा इस तरह समझ सकते हैं कि पानी का एक जहाज़ (Ship) हो, जिसका कोई कप्तान न हो और एक दूसरा जहाज़ हो, जिसका कोई कप्तान हो। नतीजा यह होता है कि बिना कप्तान का जहाज़ समन्दर की लहरों और हवा के थपेड़ों पर हिचकोले लेता रहता है और अपनी मंज़िल से भटक जाता है, जबकि वह जहाज़ जिसका कप्तान हो, अपनी मंज़िल तक पहुंच जाता है। एकेश्वरवाद एक पतवार वाले नाव के समान है, जो एकेश्वरवादी इन्सान को अपने गन्तव्य और अन्तिम लक्ष्य तक पहुंचा देता है।
सम्पूर्ण सृष्टि के साथ एकता का एहसास
इन्सान और सृष्टि का एक बनाने और चलाने वाला है। इस बात से इन्सान में एकत्व (Oneness) का एहसास पैदा होता है। वह सब चीज़ों को अपनी ही तरह एक मालिक की मिलकियत या एक स्रष्टा की सृष्टि मानकर सबके साथ अच्छा व्यवहार करता है। एकेश्वरवाद इन्सान को व्यापक दृष्टि वाला और विशाल एवं उदार हृदय वाला बनाता है। ऐसा इन्सान अपने लिए जो पसन्द करता है, वही दूसरों के लिए भी पसन्द करता है। वह सबको बराबर समझता है। वह सभी को इज़्ज़त और मुहब्बत का हक़दार समझता है, और किसी को तुच्छ या हक़ीर नहीं समझता।
आत्मविश्वास और आत्मसम्मान
एकेश्वरवाद अर्थात् यह मानना कि सब ख़ुदा पर निर्भर हैं और ख़ुदा किसी पर निर्भर (Depend) नहीं, इन्सान को आज़ादी और इज़्ज़त दिलाता है और ख़ुद्दार बनाता है।
पैदा करनेवाले से सीधे तौर पर सम्पर्क
यह मानना कि ख़ुदा हर इन्सान के क़रीब है, उसे देखता और सुनता है, इन्सान को इन्सान की दासता से आज़ाद करता है और बिचौलिए (Middle Man) की अवधारणा या कल्पना से आज़ादी देता है। इन्सान हर तरह के अंधविश्वास से आज़ाद हो जाता है।
ख़ुदा का डर
डर दो तरह के होते हैं—
1. ख़ुदा का डर (Fear of God),
2. ग़ैर-ख़ुदा का डर (Fear of non-God)
अर्थात् अन्धेरा, भूत, जानवर, हानि, दुर्घटना और मौत इत्यादि का डर।
ग़ैर-ख़ुदा का डर (Fear of non-God) इन्सान पर नकारात्मक प्रभाव डालता है और उसे डरपोक और कमज़ोर बनाता है और ख़ुदा का डर इन्सान पर सकारात्मक प्रभाव डालता है और उसे बहादुर तथा ताक़तवर बनाता है। जब इन्सान यह मानता है कि सफलता और असफलता, दुख और सुख, अमीरी और ग़रीबी, ज़िन्दगी और मौत, सम्मान और अपमान, हानि और लाभ, स्वास्थ्य और रोग, बल और निर्बलता सबका देने या न देने या देकर वापस लेनेवाला एक ख़ुदा है, तो इन्सान एक बहादुर सिपाही, हिम्मतवाला व्यापारी, ईमानदार टीचर, सही डॉक्टर, भला इंजीनियर बनता है।
विनम्रता और सज्जनता
एक बेहद ताक़तवर और हमेशा रहनेवाले ख़ुदा को मानने का नतीजा यह होता है कि इन्सान अपनी ताक़त को उसकी ताक़त के सामने कम और अस्थायी समझने लगता है। इसका असर यह होता है कि ऐसा इन्सान जान लेता है कि ख़ुदा कमज़ोर का भी साथी है। इसका नतीजा यह निकलता है कि हक़ के रास्ते में वह कमज़ोर को ताक़तवर और ताक़तवर को कमज़ोर समझने लगता है और न्याय और इन्साफ़ की दृष्टि से काम करता है। इस तरह समाज से अत्याचार घटता है, बल्कि अत्याचार का ख़ात्मा हो जाता है और इन्सान में विनम्रता पैदा होती है। लोग अत्याचार इसलिए करते हैं कि वे ख़ुद को बहुत ताक़तवर और अपनी ताक़त को हमेशा रहनेवाली समझने लगते हैं।
घमंड न करना
एकेश्वरवाद का मानना यह है कि इन्सान समझे कि ख़ुदा ही देने, न देने और देकर वापस लेनेवाला है। इस बात का प्रभाव इन्सान पर यह पड़ता है कि वह अपनी दौलत, ताक़त, योग्यता, क्षमता और औलाद पर घमंड नहीं करता, बल्कि शुक्र करता है, अल्लाह का शुक्रगुज़ार बन्दा बनकर रहता है और सारे इन्सानों का हितैषी बनने की हर संभव कोशिश करता है।
ख़ुदा इन्सान को उसके अपने घर में ही अपमानित कर सकता है। उसके अपने बिस्तर और शरीर में क़ैद कर सकता है। उसके अपनों को ही उसका दुश्मन बना सकता है। इन्सान को ख़ुद उसकी अपनी ताक़त को ही उसके लिए मुसीबत बना सकता है। इस बात का मानना इन्सान को घमंडी होने से रोक देता है।
एकेश्वरवाद को मानते हुए इन्सान जब सज्दा करता है और अपना मष्तक तथा अपनी नाक ज़मीन पर रखता है, तो व्यावहारिक रूप से ख़ुदा की बड़ाई के सामने अपनी तुच्छता या कमतरी का इज़हार करता है।
आशावाद, न कि निराशावाद
दुनिया की सारी तरक़्क़ियों और आविष्कारों (Discoveries) के पीछे एक चीज़ होती है और वह है उम्मीद (Hope), कामयाबी की उम्मीद। प्रत्येक वैज्ञानिक उम्मीद के सहारे अपनी खोज एवं शोध् की शुरुआत करता है, जान-तोड़ कोशिश करता है, जो उसे कामयाबी तक ले जाती है। जितनी ज़्यादा उम्मीद, उतनी ज़्यादा जान-तोड़ कोशिश और उतनी ज़्यादा कामयाबी।
उम्मीद इन्सान को काम करने के लिए प्रेरित करती है—किसान को फ़सल की उम्मीद, रोगी को सेहत या स्वास्थ्य की उम्मीद, व्यापारी को लाभ की उम्मीद, विद्यार्थी को सफलता की उम्मीद और सैनिक को जीत की उम्मीद ही जान-तोड़ कोशिश के लिए उभारती है।
इन्सान जब एकेश्वरवाद को मानता है, तो फिर वह एक ऐसे ख़ुदा को मानता है जिसके कंट्रोल में हर चीज़ है। कोई भी उसके क़ाबू से बाहर नहीं। वह जब चाहे और जो चाहे कर सकता है। वह कभी और किसी भी असफलता को सफलता में, दुख को ख़ुशी में और ग़रीबी को अमीरी में बदल सकता है। इस तरह एकेश्वरवाद का माननेवाला इन्सान कभी निराश नहीं होता, निराशा का शिकार नहीं होता। वह हमेशा आशावान रहता है, आशा एवं उत्साह से भरा रहता है, निराशा, उदासी और विषाद (Depression) से सुरक्षित रहता है और आत्महत्या कभी नहीं करता।
धैर्य
एकेश्वरवाद को माननेवाला व्यक्ति अपनी सभी सफलताओं और असफलताओं का श्रेय (Credit) ख़ुदा को देता है। नतीजा यह होता है कि वह सफलता पर घमंड नहीं करता और असफलता पर निराश नहीं होता, बल्कि सफलता पर ख़ुदा शुक्र अदा करता और असफलता पर धीरज रखता है। धैर्य व आत्मबल का दामन हाथ से छोड़ता नहीं।
ख़ुदा की चेतना
एकेश्वरवाद का माननेवाला यह मानता है कि ख़ुदा है और वह सब कुछ देख और सुन रहा है। यह एहसास उसे सारी बुराइयों से बचा लेता है और उसे हर तरह की अच्छाइयां करने के लिए उभारता है। ऐसा इन्सान अपने हर वादे को ख़ुदा से किया हुआ वादा (Commitment) जानता और मानता है ऐसा इन्सान अपनी कथनी और करनी में पूरा उतरने की कोशिश करता है, ऐसा इन्सान लोगों का पूरा-पूरा हक़ अदा करनेवाला बनता है, जिससे समाज में आपसी विश्वास (Mutual trust) और सामाजिक न्याय (Social Justice) और शुभेच्छा (Well-wishing) पैदा होती है।
ख़ुदा के, साथ होने (Presence of God) का एहसास इन्सान को हर समय होशियार और सचेत (Alert) रखता है।
ख़ुदा हर चीज़ को जानता है, यह एहसास इन्सान के मामलों को बदल देता है। आज दुनिया में जो संकट या समस्या (Crisis) नज़र आती है, उसका कारण कहीं अत्याचार है और कहीं अत्याचार की प्रतिक्रिया—कभी ताक़तवर की तरफ़ से और कभी कमज़ोर की तरफ़ से।
ख़ुदा के होने का एहसास इन्सान को न्याय और अन्याय के वर्गों में सोचना सिखाता है अर्थात् न्याय क्या है और अन्याय क्या, इससे इन्सान को यह एहसास अच्छी तरह वाक़िफ़ कराता है, न कि मेरा लाभ और मेरी हानि, मेरी पसन्द और मेरी नापसन्द के वर्गों में।
आज दुनिया शान्ति और सलामती की बात करती है, न्याय और इन्साफ़ की नहीं, जबकि शान्ति और सलामती नतीजा है न्याय और इन्साफ़ का। सिर्फ़ एकेश्वरवाद (तौहीद) का एहसास ही इन्सान को न्याय और इन्साफ़ करने वाला बनाए रखता है और हमेशा बनाए रख सकता है।
सच्चाई
एकेश्वरवाद को मानकर इन्सान सच्चाई को पसन्द करने वाला (Truth-loving Person) बन जाता है। वह हमेशा सच बोलता है, क्योंकि उसका ख़ुदा सच्चाई को पसन्द करता है। सच्चा इन्सान सही बात कहता है, चाहे वह उसके अपने मां-बाप के ख़िलाफ़ ही क्यों न हो। सच्चाई इन्सान को उसूली या सिद्धांतप्रिय इन्सान (Man of Principle) बनाती है। इस तरह व्यक्ति और फिर समाज कपटाचार या मुनाफ़िक़त (Hypocracy/Double Standard) से मुक्त हो जाता है।
इच्छाओं को क़ाबू में करना
इन्सान और उसकी इच्छाओं के बीच दो में से एक ही रिश्ता हो सकता है—या तो इन्सान इच्छाओं को कंट्रोल करे या इच्छाएं इन्सान को कंट्रोल करें। जब इन्सान एकेश्वरवाद (तौहीद) अर्थात् एक और सिर्फ़ एक ख़ुदा को मानता है तो ख़ुदा की मर्ज़ी के सामने अपनी मर्ज़ी और इच्छाओं को त्याग देता है। इस तरह उसकी इच्छाएं उसके क़ाबू में रहती हैं।
ग़ुस्से को क़ाबू करना
इन्सान और उसके ग़ुस्से के बीच दो में से एक ही रिश्ता होता है—इन्सान ग़ुस्से को कंट्रोल करे या ग़ुस्सा इन्सान को कंट्रोल करे। जब इन्सान ऐकेश्वरवाद को मानता है, तो ख़ुदा के आदेश को मानता है।
• ख़ुदा भले और अच्छे बन्दों के बारे में कहता है—
‘‘जब उन्हें ग़ुस्सा आता है, तो माफ़ कर देते हैं।’’ (क़ुरआन, 42:37)
• अन्तिम ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने कहा—
‘‘जिस किसी (आदमी) ने अपने ग़ुस्सा को रोका, अल्लाह क़ियामत (महाप्रलय) के दिन उससे अपनी यातना (अज़ाब) को रोक लेगा।’’ (बैहकी : शोबुल-ईमान)
समाज को ग़ुस्से के कारण बहुत हानि पहुंचती है। भरे हुए जेलख़ाने, अदालतें और अस्पताल इसके उदाहरण हैं।
मानसिक स्वास्थ्य
इन्सान की सोच का उसके आचरण और काम पर प्रभाव पड़ता है। सोच और आचरण का रिश्ता ऐसा है, जैसे बैल और बैलगाड़ी का, जिधर बैल जाएगा, उधर गाड़ी भी जाएगी।
दिमाग़ एक बाग़ की तरह होता है। जब उसकी देख-भाल नहीं की जाती तो उसमें बिगाड़ पैदा हो जाता है। नकारात्मक सोचों के साथ रचनात्मक और सकारात्मक काम नहीं हो सकता।
जब हम एकेश्वरवाद को मानते हैं, तो हमारा मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) भी अच्छा रहता है और हम मानसिक प्रदूषण (Mental Pollution) भी नहीं फैलाते, क्योंकि ख़ुदा चुग़ली, दोषारोपण और लम्बी-लम्बी छोड़ने को नापसन्द करता है। ख़ुदा किसी के प्रति अच्छा विचार रखने को पसन्द करता है। टोह लेने, भ्रम, ग़लत धारणा आदि बुरी बातों को ख़ुदा नापसन्द करता है। हम इनसे बचते हैं तो मानसिक व नैतिक स्तर पर सेहतमन्द रहते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दी गई स्वास्थ्य की परिभाषा
‘‘शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक (धार्मिक) दृष्टि से सही होने की संतुलित सतह का नाम स्वास्थ्य है, न कि बीमारी के न होने का।’’
विश्वास का संकट
आज की दुनिया में बुराई का अनुपात अच्छाई के मुक़ाबले में लगातार बढ़ रहा है और समाज में विश्वास का संकट पैदा हो रहा है।
बाप ने अपने बच्चे से कहा, ‘‘झूठ मत बोलो।’’ फिर अगर कोई मिलने आता है, तो ख़ुद कहता है कि कह दो, ‘‘घर पर नहीं हैं।’’ शिक्षक कहता है, ‘‘ईमानदार बनो।’’ मगर ख़ुद क्लास नहीं लेता। नेता कहता है, ‘‘अपने देश के लिए कु़रबानी दो।’’ और वह ख़ुद देश के हितों को अपने हित पर कु़रबान कर रहा है। इन परिस्थितियों में नई पीढ़ी के सामने कोई ‘आदर्श प्रतिरूप’ (Role Model) या ‘आदर्श लक्ष्य’ नहीं है। नतीजा यह होता है कि वह स्वार्थ तथा भोग-विलास और मनोरंजन (Entertainment and Fun) को ही अपना आदर्श बना लेती है।
कथनी और करनी का यह विरोधाभास विश्वास के संकट (Trust Crisis) का कारण बन गया है। लेकिन एकेश्वरवाद ही एक ऐसी विचारधारा है जो इस बीमारी को ख़त्म कर सकती है, क्योंकि एकेश्वरवाद का माननेवाला जानता है कि ख़ुदा उससे कहता है&