अबसार-उल-हक़

अबसार-उल-हक़

 

 (भूतपूर्व ‘क्षितिज’)

बी॰एस॰सी॰, एम॰सी॰ए॰, जन्म 1982

 

 इलाहाबाद के एक देहात से मेरा तअल्लुक़ है। पढ़ाई के दिनों में, एक पंडित जी......मेरे पिता जी के मित्र, मेरे घर पर आया करते थे और उनसे विभिन्न विषयों पर मेरी बातचीत होती रहती थी। उस समय इस्लाम से मुझे कोई रुचि न थी। एक बार पंडित जी ने यह विषय छेड़ा कि हम लोगों को अपना जीवन कैसे व्यतीत करना चाहिए। इस प्रश्न में मेरी रुचि बढ़ी। मैंने पंडित जी से पूछा तो वह टाल गए और मुझे लेकर बाहर गए। कुछ लोगों से मिलाया जो संभवतः इस्लामी संस्था......के लोग थे। उन्होंने मुझे अपने कार्यक्रम में आने को आमंत्रित किया। सन् 2000 से मैं उन कार्यक्रमों में सम्मिलित होने लगा। बी॰एस-सी॰ कर लेने के बाद उनमें बराबर शरीक होने लगा। इस बीच एक इस्लामी युवा संगठन......के सदस्यों से भी मिला और यदा-कदा इस्लामी विषयों पर वार्ता होती रही। आगे की पढ़ाई के लिए मैंने एक कमरा किराए पर ले लिया, वहां मुसलमान भाइयों से मिलना-जुलना ज़्यादा हो गया। मैं कभी-कभी उनके पर्वों, त्योहारों आदि में भी शरीक होने लगा। वु$छ किताबें मिलीं जिन्हें पढ़कर मैं अपने भ्रम-भ्रांतियाँ व सन्देह दूर करता रहा। उस युवा संस्था के कोर्स की सारी किताबें मैंने पढ़ डालीं। मेरे इलाके़ के मुसलमान अपने चरित्रा और व्यवहार में बहुत अच्छे और ऊंचे थे।

एम॰सी॰ए॰ में आने के बाद मालूम हुआ कि पंडित जी ने इस्लाम स्वीकार कर लिया है। उनके अलावा पन्द्रह-बीस और भी ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने इस्लाम को छिपा रखा है। इससे मुझे बहुत धैर्य मिला। दूसरे साल जब मैंने पहली बार नमाज़ पढ़ी तो बहुत ही अच्छा महसूस हुआ। कुछ दिन बाद मैंने फै़सला कर लिया कि अब मुझे इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेना चाहिए।

मेरा, अपने मुस्लिम भाइयों से निवेदन है कि जो विरासत (ईमान की दौलत) उन्हें मिली है उसे गँवाएं न, वरना परिणाम बहुत ही बुरा होगा।

 

 

 

 

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