रमज़ान का परिचय और रोज़े का महत्व

रमज़ान का परिचय और रोज़े का महत्व

इस्लामी कैलेंडर का 9वां महीना ‘रमज़ान’ कई अर्थों में महत्वपूर्ण है। ईश्वर ने अपना अंतिम मार्गदर्शन ‘क़ुरआन’ इसी महीने में समस्त मानवजाति को समर्पित किया। क़ुरआन इन्सानों को दुनिया में जीवन बिताने का तरीक़ा सिखता है। यह मानवजाति पर इतना बड़ा उपकार है कि इसके शुक्र के तौर पर मनुष्य को रोज़ा रखने का आदेश दिया गया। रमज़ान और क़ुरआन के इसी संबंध के चलते रमज़ान में क़ुरआन पढ़ने और सुनने का विशेष आयोजन किया जाता है। क़ुरआन चूंकि समस्त मानवजाति के लिए मार्गदर्शन है, इसलिए उसका यह अधिकार है कि उसे उन लोगों तक पहुंचाया जाए, जिन लोगों तक क़ुरआन की शिक्षाएं अभी तक नहीं पहुंची हैं।
रमज़ान का सीधा संबंध ‘रोज़ों’ से है। रोज़ा फ़ारसी भाषा का शब्द है, जो ‘रोज़’ (दिन) से बना है। अर्थात् वह इबादत जो पूरे दिन की होती है। सूर्योदय से कोई सवा घंटे पहले से लेकर, जब आकाश में भोर का पहला उजाला दिखाई पड़ता है, पूरी तरह सूर्यास्त हो जाने तक ईश्वरीय आदेश का पालन करते हुए खाने-पीने और कई दूसरे जायज़ कामों से रुक जाने का नाम रोज़ा है। ईश्वर का सामीप्य प्राप्त करने के लिए रोज़े या व्रत का तरीक़ा आदिकाल ही से मान्य रहा है। आज भी सभी बड़े धर्मों में व्रत के कुछ दिन किसी न किसी रूप में निर्धारित हैं। अल्लाह ने अपने अंतिम ग्रंथ ‘क़ुरआन’ में ईमान लानेवालों पर जहां रोज़े अनिवार्य किये हैं, वहीं पर उन्हें यह भी याद दिलाया है कि यह कोई नयी इबादत नहीं है, बल्कि पहले गुज़र चुके लोगों पर भी रोज़े अनिवार्य किये गये थे। साथ ही रोज़े का उद्देश्य भी स्पष्ट कर दिया गया, जो यह है कि, ‘ताकि तुम्हारे भीतर ईशभक्ति का गुण पैदा हो।’
रोज़ा एक ऐसी इबादत है, जिसमें दिखावे की कोई संभाावना नहीं है। यह केवल ईश्वर के लिए रखा जाता है। रोज़ा ईश्वर और उसके बन्दे के बीच एक ऐसा समझौता है, जिसमें किसी दूसरे का कोई हस्तक्षेप नहीं है। रोज़ा रखने वाला व्यक्ति अकेले में भी, जब उसे कोई नहीं देख रहा होता है, कुछ भी खाने-पीने से बचता है, केवल यह सोचकर कि वह जहां भी रहे, ईश्वर की निगाह में है। ईश्वर उसके हर छोटे-बड़े काम को देख रहा है और वह उसे हमेशा याद रखेगा। इसलिए एक हदीस के अनुसार अल्लाह का कहना है कि ‘‘रोज़ा मेरे लिए है और मैं ही उसका (जितना चाहूंगा) प्रतिदान दूंगा।’’
यह बिलकुल व्यवहारिक है कि जब कोई व्यक्ति केवल ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हुए निर्धारित समयावधि तक खाने-पीने जैसी बुनियादी ज़रूरतों और दूसरे कई जायज़ कामों से रुका रहता है, तो उसका दिल नर्म होता है और नेकी की ओर उसका झुकाव होता है, वह अपने रचयिता और पालनहार से प्रेम करने लगता है। ईश्वर से प्रेम के परिणामस्वरूप उसे ईश्वर की रचना से भी प्रेम होने लगता है। इससे एक सुखद अनुभव और आनंद तो मिलता ही है, साथ ही अभावग्रस्त लोगों के प्रति सहानुभूति भी पैदा होती है। रोज़े की हालत में भूख और प्यास सहन करते हुए व्यक्ति ग़रीब जनता के दुख-दर्द को व्यावहारिक रूप से महसूस करता है। अनदेखे ईश्वर का सम्मान और उसके सामने दुनिया में किये गये कामों की जवाबदेही का एहसास व्यक्ति को दुनिया के मामलों में भी ज़िम्मेदार बनाता है। वह ऐसे किसी भी काम से बचता है, जिसके लिए उसे मरने के बाद परलोक में सज़ा का डर हो। वह किसी के साथ अन्याय एवं अत्याचार नहीं करता, किसी का अधिकार हनन नहीं करता, धर्म, जाति, राष्ट्रीयता आदि आधारों पर मानव-मानव में भेद नहीं करता, बल्कि समस्त मानवजाति को एक ईश्वर का कुनबा समझता है।
रमज़ान के रोज़े इस्लाम के पांच आधार सतम्भों में से एक हैं, पहला आधार स्तम्भ ‘तौहीद’ अर्थात् एक ईश्वर को मानना और उसे ही सर्वजगत का रचयिता, पालनहार, स्वामी समझना तथा उसके सिवा किसी को भी पूज्य या उपास्य न समझना और यह समझना कि दुनिया की ज़िन्दगी के बाद परलोक में उस ईश्वर के समाने हाज़िर होना है और यहां के अपने सभी छोटे-बड़े कर्मों का हिसाब देना है। इस्लाम का दूसरा आधार है ‘नमाज़’। यह एक ऐसी इबादत है जो ईमान लाने के बाद हर वयस्क व्यक्ति पर दिन में पांच बार पाबन्दी के साथ अनिवार्य है। तीसरा आधार स्तम्भ यही ‘रोज़ा’ है। अर्थात् हर वयस्क व्यक्ति पर रमज़ान के पूरे रोज़े रखना अनिवार्य है। चैथा स्तम्भ ‘ज़कात’ है। यह केवल सामथ्र्यवान व्यक्तियों पर अनिवार्य है कि वे अपनी जमा राशि पर एक वर्ष बीतने पर उसका ढाई प्रतिशत ग़रीबों के लिए निकाल दें। और पांचवां स्तम्भ ‘हज’ भी सामथ्र्यवान लोगों के लिए अनिवार्य है कि वे जीवन में एक बार मक्का जाकर ईश्वर के सांकेतिक घर ‘काबा’ का हज करें।
इन आध्यात्मिक बातों के साथ अगर सांसारिक बातों का भी जायज़ा लें, तो यह तथ्य सामने आता है कि स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी रोज़ा बहुत महत्वपूर्ण है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान स्वीकार करता है कि अल्लाह द्वारा बनाया गया यह नियम पूर्णतः वैज्ञानिक है। नियमानुसार रोज़ा रखने से कई घातक रोगों के जन्म लेने की सम्भावना समाप्त हो जाती है। रोज़े की हालत में जब बन्दा 14-15 घंटों तक कुछ खाता-पीता नहीं, तो पाचन-तंत्र को शरीर की आंतरिक टूट-फूट की मरम्मत करने और अंगों में जमे रोग पैदा करने वाले तत्वों को बाहर करने का मौक़ा मिलता है।

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