मुंशी प्रेमचंद के विचार इस्लाम के बारे में

मुंशी प्रेमचंद के विचार इस्लाम के...

मुंशी प्रेमचंद (1880-1936) हिन्दी और उर्दू के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, कहानीकार, उपन्यासकार और विद्वान हैं। उनकी रचनाओं में ज़िन्दगी की सच्चाइयां उजागर होती हैं। इन रचनाओं में समाज और उसकी व्यावहारिकताओं की ठोस व व्यापक ज़मीन से जुड़ी वास्तविकताओं का ऐसा सजीव व प्रभावी चित्रण है, जो एक विवेकशील इन्सान की अंतरात्मा और मन-मस्तिष्क को झंझोड़ कर रख देता है।
प्रेमचंद की रचनाएं एक आईना-समान हैं, जो मानव- सभ्यता के चेहरे के गुण और अवगुण ठीक वैसे ही दिखा देती हैं जैसे कि वे वास्तव में हैं।
यहां उस आलेख के कुछ अंश प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जो ‘इस्लामी सभ्यता’ के शीर्षक से साप्ताहिक ‘प्रताप’ (दिल्ली) के दिसम्बर 1925 विशेषांक में प्रकाशित हुआ था।

इस्लामी सभ्यता

न्याय

जहां तक हम जानते हैं, किसी धर्म ने न्याय को इतनी महानता नहीं दी जितनी इस्लाम ने। ईसाई धर्म में दया प्रधान है। दया में छोटे-बड़े, ऊंच-नीच, सबल-निर्बल का भाव छिपा रहता है। जहां न्याय होगा वहां ये भेद हो ही नहीं सकते और वहां दया का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, कम से कम मनुष्यों के लिए नहीं। अन्य जीवधारियों ही पर उसका व्यवहार हो सकता है। 
किसी धर्म की श्रेष्ठता व्यक्तियों के कृत्यों से न जांचनी चाहिए, यह देखना चाहिए कि धर्म के आचार्य और स्थापक ने क्या उपदेश किया है। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने धर्मोंपदेशकों को इस्लाम का प्रचार करने के लिए देश-देशांतरों में भेजते हुए यह उपदेश दिया था—जब तुम से लोग पूछें कि स्वर्ग की कुंजी क्या है तो कहना कि वह ईश्वर की भक्ति और सत्कार्य में है। अराफ़ात के पहाड़ पर हज़रत मुहम्मद के मुख से जिस वचनामृत की वर्षा हुई थी वह अनंत काल तक इस्लामी जीवन के लिए संजीवनी का काम करती रहेगी और उस उपदेश का सार क्या था? ‘न्याय’। उसके एक-एक शब्द से न्याय की ध्वनि निकल रही है। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने फ़रमाया—
‘‘ऐ मोमिनो, मेरी बातें सुनो और उन्हें समझो। तुम्हें मालूम हो कि सब मुसलमान आपस में भाई-भाई हैं। तुम्हारा एक ही भ्रातृ-मंडल है। एक भाई की चीज़ दूसरे भाई पर कभी हलाल (वैध) नहीं हो सकती, जब तक वह ख़ुशी से न दे दी जाए, बेइन्साफ़ी कभी मत करो इससे हमेशा बचते रहो।’’
इस अमर वाणी में इस्लाम की आत्मा छिपी हुई है। इस्लाम की बुनियाद न्याय पर रखी गई है। वहां राजा और रंक, अमीर और ग़रीब, बादशाह और फ़क़ीर के लिए केवल एक न्याय है। किसी के साथ रियायत नहीं, किसी का पक्षपात नहीं। ऐसी सैकड़ों रिवायतें पेश की जा सकती हैं जहां बेकसों ने बड़े-बड़े बलशाली अधिकारियों के मुक़ाबले में न्याय के बल से विजय पाई है। ऐसी मिसालों की भी कमी नहीं है, जहां बादशाहों ने अपने राजकुमार, अपनी बेगम, यहां तक कि स्वयं अपने को, न्याय की वेदी पर होम कर दिया है। संसार की किसी सभ्य से सभ्य जाति की न्याय-नीति की इस्लामी न्याय-नीति से तुलना कीजिए, आप इस्लाम का पल्ला झुकता हुआ पाएंगे।
जिन दिनों इस्लाम का झंडा कटक से लेकर डैन्युष तक और तुर्किस्तान से लेकर स्पेन तक फ़हराता था, मुसलमान बादशाहों की धार्मिक उदारता इतिहास में अपना सानी नहीं रखती थी। बड़े से बड़े राज्य पदों पर ग़ैर-मुस्लिमों को नियुक्त करना तो साधारण बात थी, महाविद्यालयों के कुलपति तक ईसाई और यहूदी होते थे।

समता

वे सिद्धांत जिनका श्रेय अब कार्ल मार्क्स और रूसो को दिया जा रहा है, वास्तव में अरब के मरुस्थल में प्रसूत हुए थे और उनका जन्मदाता अरब का वह उम्मी (अनपढ़) था, जिसका नाम मुहम्मद (सल्ल॰) है। मुहम्मद (सल्ल॰) के सिवा संसार में और कौन धर्म-प्रणेता हुआ है जिसने ख़ुदा के सिवा किसी मनुष्य के सामने सिर झुकाना गुनाह ठहराया हो? और संप्रदायों में गुरु-प्रथा ने जितने अनर्थ किए हैं उनसे इतिहास काला हो गया है। ईसाई धर्म में पादरियों के सिवा और किसी को इंजील पढ़ने की आज़ादी न थी। हिन्दू-समाज ने भी शूद्रों की रचना करके अपने सिर कलंक का टीका लगा लिया। पर इस्लाम पर इसका धब्बा तक नहीं। ग़ुलामी की प्रथा तो उस वक़्त समस्त संसार में थी, लेकिन इस्लाम ने ग़ुलामों के साथ जितना अच्छा सलूक किया उस पर उसे गर्व हो सकता है। इस्लाम क़बूल करते ही ग़ुलाम आज़ाद हो जाता था। यहां तक कि ऐसे ग़ुलामों की कमी नहीं है, जो अपने मालिक के बाद उसकी गद्दी पर बैठे और उसकी लड़की से विवाह किया।

भाईचारा

हज़रत मुहम्मद ने फ़रमाया—कोई मनुष्य उस वक़्त तक मोमिन नहीं हो सकता, जब तक वह अपने भाई-बंदों के लिए भी वही न चाहे जो वह अपने लिए चाहता है। एक-दूसरी जगह आपने फष्रमाया है—जो प्राणी दूसरों का उपकार नहीं करता, ख़ुदा उससे ख़ुश नहीं होता। उनका यह क़ौल (वाणी) सोने के अक्षरों में लिखे जाने योग्य है—‘‘ईश्वर की समस्त सृष्टि उसका परिवार है और वही प्राणी ईश्वर का भक्त है जो ख़ुदा के बंदों के साथ नेकी करता है।’’ किसी मोमिन ने एक बार आपसे पूछा था—ख़ुदा की बंदगी कैसे की जाए? आपने जवाब दिया—अगर तुम्हें ख़ुदा की बंदगी करनी है, तो पहले उसके बंदों से मुहब्बत करो।

अन्य ख़ूबियां

सूद (ब्याज) की पद्धति ने संसार में जितने अनर्थ किए हैं और कर रही है वह किसी से छिपे नहीं हैं। इस्लाम वह अकेला धर्म है जिसने सूद को हराम ठहराया है। यह दूसरी बात है कि व्यवसाय की दृष्टि से इस निषेध का खंडन किया जाए, पर सामाजिक दृष्टि से कोई इसका समर्थन किए बिना नहीं रह सकता है।
स्वाधीनता का ऐसा सच्चा अनुराग कदाचित और कहीं देखने में न आएगा। आज कौन ऐसा सहृदय प्राणी है, जो मुट्ठी भर रिफ़ो को यूरोप की दो महान शक्तियों से युद्ध करते देख गर्व से फूल न उठे? दमिश्क़ में, शाम (सीरिया) में, तुर्की में, मिस्र में, जहां देखिए मुसलमान अपने को स्वाधीनता की वेदी पर बलिदान कर रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान केवल स्वाधीनता पर मर मिटने के लिए तैयार होने के कारण आज स्वाधीन बना हुआ है। हम तो यहां तक कहने को तैयार हैं कि इस्लाम में जनता को आकर्षित करने की जितनी शक्ति है, उतनी और किसी संस्था में नहीं है। जब नमाज़ पढ़ते समय एक मेहतर अपने को शहर के बड़े से बड़े रईस के साथ एक ही क़तार में खड़ा पाता है, तो क्या उसके हृदय में गर्व की तरंगें न उठने लगती होंगी।

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यह आलेख ‘स्वराज्य’ (आज़ादी) से 22 वर्ष पहले का, यानी आज (2013) से 88 साल पूर्व का है। स्वराज-पथ पर अग्रसर होने की बात बहुत पुरानी हो गई, और इतिहास का अंग बन गई। स्वराज्य मिल चुका, लेकिन अंग्रेज़ी साम्राज्य ने अपने कुत्सित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हिन्दू-मुस्लिम दुश्मनी का जो बीज बोया और फ़सल उगाई थी उसके फलस्वरूप देशबंधुओं इस्लाम को समझने, उससे लाभांवित होने के बजाय इस्लाम के प्रति आमतौर पर अनभिज्ञता, परायापन, शक-शुब्हा, दुराग्रह, घृणा, द्वेष या वैमनस्य की नीति अपनाए रखी (नगण्य अपवादों को छोड़कर)। फिर इस दिशा में वे और अधिक आक्रामक हो गए। राजनीति और मीडिया ने और प्रमुखतः एक विशेष समूह ने इस्लाम जैसे उत्कृष्ट, मानवता-उद्धारक, परोपकारी एवं नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों तथा सामाजिक गुणों से परिपूर्ण धर्म को ‘‘आतंक का धर्म’’ बताकर, इसके विरुद्ध दुष्प्रचार व चरित्रहनन का एक तूफ़ान मचा दिया। कितना बड़ा दुर्भाग्य है यह देशबंधुओं का, भारतीय समाज का और मानवजाति का!

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