ईशग्रंथ कु़रआन में अनाथों, मुहताजों, नातेदारों आदि से संबंधित शिक्षाएं

ईशग्रंथ कु़रआन में अनाथों, मुहताजों,... • इसराईल की संतान से ईश्वर ने वचन लिया था: ‘‘अल्लाह के सिवाय किसी की बन्दगी न करोगे और मां-बाप के साथ और नातेदारों के साथ और अनाथों तथा मुहताजों के साथ अच्छा व्यवहार करोगे; और यह कि लोगों से भली बात कहोगे...।’’ (2:38)
• ‘‘वफ़ादारी और नेकी (सिर्फ़) यह नहीं है कि तुम (नमाज़ में) अपने मुंह पूरब या पश्चिम की ओर कर लो। बल्कि वफ़ादारी तो उसकी वफ़ादारी है जो अल्लाह पर, अन्तिम दिन (अर्थात् प्रलय के दिन, जिसके बाद पुनः जीवित करके, इहलौकिक जीवन का लेखा-जोखा किया जाएगा और कर्मानुसार ईश्वर की ओर से प्रतिफल दिया जाएगा) पर, फ़रिश्तों, ईशग्रंथ और नबियों (ईशदूतों) पर ईमान लाया और माल के प्रति प्रेम के बावजूद उसे नातेदारों, अनाथों, मुहताजों, मुसाफि़रों, और मांगने वालों को दिया और गर्दन छुड़ाने में (अर्थात् गु़लामों, दासों व बंधुआ मज़दूरों आदि को आज़ाद कराने में) भी...।’’ (2:177)
• लोग पूछते हैं कि हम क्या (अर्थात् किन लोगों पर पुण्यकार्य-स्वरूप और सेवा-भाव से अपना माल) ख़र्च करें? (ऐ नबी, उनसे) कहो, ‘‘जो माल भी ख़र्च करो, अपने माता-पिता पर, नातेदारों पर, अनाथों पर, मुहताजों पर और (सफ़र की हालत में माली मदद के हक़दार) मुसाफि़रों पर ख़र्च करो। और जो भी भलाई तुम करोगे अल्लाह उससे बाख़बर होगा’’ (अर्थात् उसका बड़ा अच्छा बदला तुम्हें इहलोक व परलोक में देगा)। (2:215)
• लोग पूछते हैं (नातेदारी के) अनाथों के बारे में। कहो (ऐ नबी!) कि उनके साथ जिस तरह का मामला करने में उनकी भलाई हो, वैसा ही मामला करना अच्छा है। और तुम अपना और उनका ख़र्च और रहना-सहना एक साथ कर लो तो (यह तो और भी अच्छा है क्योंकि) आखि़र वे तुम्हारे भाई-बंधु ही तो हैं। (2:220)
• और अनाथों को उनके माल (जो उनके पिता ने मृत्यु पश्चात् छोड़ा है) दे दो। और (उस माल में) जो चीज़ अच्छी हो, उसे (अपनी) बुरी (अर्थात् ख़राब) चीज़ से बदल न लो। और न उनका माल अपने माल के साथ मिलाकर खा जाओ। (अतः उनके माल का अलग से ठीक-ठीक हिसाब रखो), यह (उनका माल खा जाना) बहुत बड़ा पाप है। (4:2)
• और यदि तुम्हें आशंका हो कि तुम अनाथों के प्रति इन्साफ़ न कर सकोगे, तो (इसकी इजाज़त है कि) जिन औरतों के साथ ये अनाथ बच्चे हैं (अर्थात् उनकी माएं) तो (उनमें से) जो औरतें तुम्हें पसन्द आएं उनमें से (परिस्थिति के अनुसार) दो-दो, या तीन-तीन या चार-चार से विवाह कर लो...। (4:3)
• और अनाथों (की हालत) को जांचते रहो, यहां तक कि वे विवाह की अवस्था को पहुंच जाएं, फिर अगर तुम देखो कि उनमें (अपना माल ठीक से संभालने और इस्तेमाल करने की) सूझ-बूझ व क्षमता आ गई है तो उनका माल उनके हवाले कर दो। और इन्साफ़ की सीमा को फलांग कर ऐसा हरगिज़ न करना कि इस डर से कि वे बड़े होकर अपना माल मांगेंगे, तुम उनके माल जल्दी-जल्दी खा जाओ। अनाथ का जो अभिभावक मालदार हो उसे इस (माल को खाने) से बचना चाहिए; और जो ग़रीब हो वह उचित रीति से कुछ खा सकता है।1  फिर जब उनके माल उनके हवाले करने लगे तो लोगों को उस पर गवाह बना लो। (वैसे तो) हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है (यानी तुमने कुछ भी गड़बड़ की तो परलोक में अल्लाह द्वारा चलाई जाने वाली हिसाब की प्रक्रिया में, तुम पकड़े जाओगे, दंडित किए जाओगे)। (4:6)
1. (अर्थात् अनाथ के माल-जायदाद की हिफ़ाज़त का, अपना पारिश्रमिक इस हद तक ले सकता है कि कोई भी निर्पेक्ष, सज्जन, बुद्धिमान व्यक्ति इसे मुनासिब क़रार दे; और यह भी कि वह अपना पारिश्रमिक (Service-charges) चोरी-छिपे न ले बल्कि उसे एलानिया, निर्धारित करके ले और इसका हिसाब रखे)।
• और जब (किसी मृत व्यक्ति के माल का) बंटवारा करते समय नातेदार, अनाथ और मुहताज लोग उपस्थित हों तो उस माल में से उन्हें भी (उनका हिस्सा) दे दो और उनसे भली बात करो। (4:8)
• जो लोग अनाथों का माल अन्याय के साथ खाते हैं, वास्तव में वे अपने पेट आग से भरते हैं। और वे (परलोक जीवन में इस अन्याय के प्रतिफलस्वरूप, ईश्वर के फ़ैसले से नरक की) भड़कती हुई आग में डाले जाएंगे। (4:10)
• अल्लाह की बन्दगी करो और इस (बन्दगी) में उसके सिवाय किसी और को साझी न करो और अच्छा व्यवहार करो मां-बाप के साथ, नातेदारों, अनाथों और मुहताजों (निर्धनों व ज़रूरतमंदों) के साथ, नातेदार पड़ोसियों के साथ भी, और ऐसे पड़ोसियों के साथ भी जो तुम्हारे नातेदार नहीं हों, और साथ रहने वाले व्यक्ति के साथ और मुसाफि़र के साथ और उसके साथ भी जो तुम्हारे अधीन (तुम्हारी दास्ता या सेवा आदि में) हो। अल्लाह ऐसे व्यक्ति को पसन्द नहीं करता जो घमंड से इतराता, शेख़ी बघारता और डींग मारता हो। (4:36)
• (ऐ नबी!) लोग तुम से स्त्रियों के बारे में फ़त्वा पूछते हैं, (उनसे) कहो: अल्लाह तुम्हें उनके विषय में फ़त्वा (हुक्म) देता है और जो आयतें तुम्हें इस किताब (कु़रआन) में पढ़कर सुनाई जाती हैं वो उन अनाथ लड़कियों के विषय में भी है जिनके हक़ तुम अदा नहीं करते और जिन का विवाह तुम नहीं करते (या लालच के कारण तुम स्वयं उनसे विवाह कर लेना चाहते हो), और वो आदेश जो उन बच्चों के बारे में है जो बेचारे कोई ज़ोर नहीं रखते; अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि अनाथों के साथ इन्साफ़ पर क़ायम रहो, और जो भलाई तुम करोगे उसे अल्लाह भली-भांति जान रहा होगा (अर्थात् उसका अच्छा बदला अवश्यतः तुम्हें देगा)। 
(4:127)
• (यह बातें हैं जिनका आदेश उस (अल्लाह) ने तुम्हें दिया है ताकि तुम सूझ-बूझ से काम लो (6:151)। और यह कि अनाथ के माल के क़रीब भी मत जाओ यहां तक कि वह सूझ-बूझ की उम्र को पहुंच जाए...। (6:152)
(इस आदेश की व्याख्या, पीछे आयत 4:6 के अंतर्गत आ चुकी है)।
• और जान रखो कि जो कुछ माल, ‘ग़नीमत’ (युद्ध के पराजित शत्रु-सेना की युद्ध-सामग्री) के रूप में तुम्हें प्राप्त हुआ है, उसक पांचवां हिस्सा अल्लाह और उसके रसूल (इस्लामी राज्य-कोष), नातेदारों, अनाथों, मुहताजों, और (ज़रूरतमंद) मुसाफि़रों के लिए है...। (8:41)
• और अनाथ के माल के पास भी मत फटको, सिवाय उत्तम तरीके़ के यहां तक कि वह सूझ-बूझ (बालिग़ व बुद्धिमान होने) की उम्र तक पहुंच जाए (17:34)। (इस शिक्षा को उपर्लिखित आयत 4:6 से मिलाकर समझना चाहिए)।
• जो कुछ भी अल्लाह, बस्तियों से अपने रसूल की ओर पलटा दे वह अल्लाह, उसके रसूल और (मुहताज) नातेदारों और अनाथों और निर्धन ज़रूरतमंदों और (सहायता व सहयोग के हक़दार) मुसाफि़रों के लिए है ताकि वह (माल इत्यादि) तुम्हारे धनवानों के बीच ही चक्कर न लगाता रहे...। (59:7)
• (स्वर्ग में जाने वाले, ये वे लोग होंगे जो (76:5-7) अल्लाह की मुहब्बत (ईश-प्रेम) में निर्धन ज़रूरतमंदों और अनाथों और क़ैदियों को खाना खिलाते हैं और (उनसे कहते हैं कि) ‘‘हम तुम्हें सिर्फ़ अल्लाह (की प्रसन्नता व कृपा पाने) के लिए खिलाते हैं। हम तुम से न कोई बदला चाहते हैं और न ही धन्यवाद और कृतज्ञता।’’ (76:8,9) 
• ...कदापि नहीं! बल्कि तुम अनाथ का सम्मान नहीं करते। (89:17)
• और तुम्हें क्या मालूम है कि वह कठिन घाटी क्या है? किसी गर्दन को (गु़लामी से) छुड़ाना; भूख के दिन किसी धूल-धूसरित मुहताज को, किसी निकटवर्ती अनाथ को खाना खिलाना। 
(90:12-16)
• ...अतः जो अनाथ हो उसे दबाओ मत, उस पर सख़्ती मत करो। (93:9)
• क्या तुम ने उस व्यक्ति को देखा जो धर्म को और उस दिन को झुठलाता है जब (इहलोक के सत्कर्मों या दुष्कर्मों का, परलोक जीवन में, ईश्वर के न्याय व फ़ैसले के अंतर्गत पूरा-पूरा) बदला दिया जाएगा! वही व्यक्ति तो है जो अनाथ को धक्के देता है, मुहताज को खिलाने पर लोगों को प्रेरित नहीं करता। (107:1-3)
• ऐ ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़े अनिवार्य किए गए जिस प्रकार तुम से पहले के लोगों पर (अनिवार्य) किए गए थे ताकि तुम (बुराइयों और पाप आदि से) बचने वाले बन सको। गिनती के कुछ दिनों के लिए-इस पर भी (तुम्हारे लिए आसानी रखी गई है कि) तुम में से जो बीमार हो या सफ़र में हो तो (चाहे तो रोज़े न रखे और) दूसरे दिनों में (छूटे हुए रोज़ों के दिनों की) तादाद पूरी कर ले। और जिन मरीज़ों या मुसाफि़रों को (मुहताजों को खाना खिलाने का) सामर्थ्य हो वे (एक दिन के बदले) एक मुहताज को खाना खिला दें। फिर जो अपनी ख़ुशी से इससे ज़्यादा नेकी करे तो यह उसी के लिए अच्छा है। अगर रोज़ा ही रख लो तो यह तुम्हारे लिए ज़्यादा अच्छा है...। (2:183,184)
• और नातेदार को उसका हक़ दो और मुहताज और मुसाफि़र को भी, और अपव्यय (फु़जू़ल ख़र्ची) न करो। निश्चय ही फु़जू़लख़र्ची करने वाले लोग शैतान के भाई हैं। और शैतान अपने रब का बड़ा ही कृतघ्न (नाशुक्रा) है। (17:26,27)
• तुम में जो बड़ाई वाले और सामर्थ्यवान हैं वे नातेदारों, मुहताजों, और अल्लाह की राह में घर बार छोड़ने वालों को (किसी विशेष व्यक्तिगत कारण से) माल से मदद करने से रुक जाने की क़सम न खा लें1। उन्हें चाहिए कि क्षमा कर दें और दरगुज़र करें। क्या तुम यह नहीं चाहते कि अल्लाह (तुम्हारी ग़लतियों के लिए) तुम्हें क्षमा करे? अल्लाह तो बहुत क्षमाशील, अत्यंत दयावान है। (24:22)
1. (पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) के साथी (सहाबी) और ससुर हज़रत अबू-बक्र (रजि़॰) अपने एक ग़रीब मुहताज नातेदार की माली मदद करते थे। हज़रत अबू बक्र (रजि़॰) की बेटी (पैग़म्बर की बीवी) पर कुछ शरारती लोगों ने अनैतिकता का बड़ा जघन्य झूठा आरोप लगाया। आरोप लगाने वालों में हज़रत अबू बक्र (रजि़॰) के वे नातेदार भी थे। दुखी होकर उन्होंने उस व्यक्ति को माली मदद रोक देने की क़सम खा ली। इस पर यह आयत उतरी और हमेशा के लिए मुसलमानों को आदेश दे दिया गया क्षमादान, दरगुज़र व विशाल हृदयता का)।
• ...अल्लाह जिसके लिए चाहता है रोज़ी (Sustenance) कुशादा कर देता है और जिसके लिए चाहता है, नपी-तुली कर देता है। यक़ीनन इसमें ईमान लाने वालों के लिए (ईश्वर की तत्वदर्शिता की) निशानियां है। अतः नातेदार को उसका हक़ दो और मुहताजों और मुसाफि़र को भी (उसका हक़ दो)। यह उन लोगों के लिए अच्छा है जो अल्लाह की प्रसन्नता (पाने) के इच्छुक हैं और वही सफल हैं। (30:38)
• (वह नरक में जाने वाला व्यक्ति) न तो महिमावान अल्लाह पर ईमान रखता था और न (दूसरों को) मुहताज को खाना खिलाने पर उभारता था। (69:33,34)
• (जब उनसे पूछा जाएगा कि) ‘‘तुम्हें क्या चीज़ नरक में ले आई?’’ तो वे कहेंगे: ‘‘हम नमाज़ अदा करने वालों में से न थे। और न हम मुहताजों को खाना खिलाते थे।’’ (74:42-44)
• और न मुहताज को खाना खिलाने पर एक-दूसरे को उभारते हो। (89:18)
• (तुम्हारी पक्की क़समों का प्रायश्चित यह है कि) दस मुहताजों को औसत दर्जे का वह खाना खिला देना है जो तुम अपने घर वालों को खिलाते हो, या फिर उन्हें कपड़े पहनाना या एक गु़लाम आज़ाद करना...। (5:89)
• (हज के दौरान जबकि इहराम की हालत में शिकार मारना वर्जित है) जो व्यक्ति जान-बूझकर शिकार मारे, उसके अन्य प्रायश्चित के विकल्प के रूप में दूसरा प्रायश्चित है मुहताजों को भोजन कराना...। (5:95)
• सदके़ (अनिवार्य...साल भर की बचत का ढाई प्रतिशत...दान, यानी ‘ज़कात’) तो ग़रीबों, मुहताजों और उन लोगों के लिए हैं जो ज़कात की व्यवस्था चलाने पर नियुक्त किए गए हों, और उन लोगों के लिए जिनके दिलों को आकृष्ट करना व परचाना अभीष्ट हो, और (गु़लामी में फंसी) गर्दनों को छुड़ाने, और क़र्ज़दारों (व तावान भरने वालों) की सहायता करने में, अल्लाह के मार्ग में, और मुसाफि़रों की सहायता करने में लगाने के लिए हैं। यह अल्लाह की ओर से ठहराया हुआ हुक्म है...। (9:60)

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