इस्लाम और समाज

इस्लाम और समाज

इस्लाम व्यक्ति एवं समाज के बीच सम्बन्ध को भाईचारे एवं एकता के दृढ़ स्तम्भों पर क़ायम करता है। इसलिए यहां सम्प्रदाय और धर्मों के बीच न कोई कशमकश होती है और न बिरादरी और मसलकों के बीच कोई झगड़ा, सबके सब भाई होते हैं। सब एक अल्लाह के बन्दे और आदम के बेटे हैं।

तुम्हारा रब भी एक है और तुम्हारा बाप भी एक।(मुसनद अहमद : 22391)

हम देख चुके हैं कि इस्लाम समाज के कमज़ोर वर्ग जैसे मज़दूर, किसान, कारीगर और छोटी उम्र के कर्मचारी को, जिनको कमज़ोर समझकर उन पर ध्यान नहीं दिया जाता, विशेष रूप से महत्व देता है। अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) ने इन्हें महत्वपूर्ण कहा है। अमन की हालत में और युद्ध की हालत में उन्हें मदद करने वाला हथियार बताया है जैसा कि हदीस में है

“तुम्हें अपने कमज़ोरों के कारण ही रोज़ी मिलती है और इनके कारण ही तुम्हारी मदद होती है।” (बुख़ारी : 2681)

जाहिलियत के समाज में यह कमज़ोर वर्ग उपेक्षित किए जाते थे मगर जब इस्लाम आया तो इनमें से हर एक के शारीरिक बल, उनके श्रम और उनकी आवश्यकता तीनों को ध्यान में रखते हुए उनके वेतन और उनकी सुरक्षा का निर्धारण किया और उनके अधिकारों को सुरक्षित किया गया। इसी तरह इस्लाम ने उन ग़रीबों, दरिद्रों, अनाथों और मुसाफ़िरों का विशेष ध्यान रखा है, जो परिश्रम करने के क़ाबिल नहीं होते या बेरोज़गार हैं या परिश्रम के बावजूद इतनी मज़दूरी नहीं पाते कि उनके ख़र्च पूरे हों। इस्लाम ने धनी व्यक्तियों के माल, उसी तरह सामूहिक धन जैसेग़नीमत एवं फ़ै और प्रशासन के आमदनी के दूसरे स्रोत (जैसेज़कात) में इन वर्गों के लिए निर्धारित किए हैं ताकि समाज में रहने वाले लोगों के बीच सामूहिक आर्थिक भरण-पोषण का प्रबन्ध किया जा सके। शक्तिशाली निर्बल की देखभाल कर सके। धनी, दरिद्र को लाभ पहुंचा सके और धन मालदारों के हाथों का खिलौना बनकर केवल उनके बीच ही न चक्कर लगाता रहे।

अल्लाह फ़रमाता है

“जो कुछ भी अल्लाह बस्तियों के लोगों से अपने रसूल की ओर पलटा दे वह अल्लाह और रसूल और नातेदारों और अनाथों और मुहताजों और मुसाफ़िरों के लिए है ताकि वह तुम्हारे मालदारों ही के बीच चक्कर न खाता रहे।(क़ुरआन, 59:7)

दरिद्र, मुसाफ़िर और अनाथ इस धन-राशि से कुछ पाएंगे वह एक निर्धारित अधिकार और आदरणीय दायित्व है। यह किसी की ओर से उपकार नहीं है बल्कि इस्लामी हुकूमत अपने प्रतिनिधियों द्वारा इन निर्धारित राशि के अनुसार मालदारों से माल वसूल करेगी और ग़रीब जनता पर ख़र्च करेगी। अगर कोई व्यक्ति स्वेच्छा से इस दायित्व को पूरा नहीं करेगा तो उससे बलपूर्वक इस दायित्व के पूरा करने के लिए बाध्य किया जाएगा। इस्लामी हुकूमत दुनिया की वह पहली हुकूमत है जो ग़रीबों के अधिकारों के लिए युद्ध करती है। इस्लाम के पहले ख़लीफ़ा का बयान है—

“ख़ुदा की क़सम अगर यह मुझे ऊंट की वह रस्सी भी देने से इन्कार करेंगे जो रसूल (सल्ल॰) के ज़माने में दिया करते थे तो मैं उसकी ख़ातिर उनसे युद्ध करूंगा।”                                       

(बुख़ारी : 6741)

इस्लाम की कोशिश है कि अमीर एवं ग़रीब के बीच दूरी कम हो। इसलिए वह एक ओर अमीरों की हद से बढ़ी हुई आमदनी पर लगाम लगता है और दूसरी ओर ग़रीबों के जीवन स्तर को ऊपर उठाता है। इस्लामी समाज इस हालत को स्वीकार नहीं करता कि एक व्यक्ति भरपेट खाए और उसका पड़ोसी भूखा हो। इस्लाम इन वर्गों के भरण-पोषण का दायित्व प्रशासन को देता है। उसकी दृष्टि में प्रशासन का मुखिया अपनी जनता के सम्बन्ध से उत्तरदायी है। वह जनता के लिए ऐसा ही है जैसे परिवार के लिए पिता। आप (सल्ल॰) का इरशाद है

“मैं ईमान वालों से उनके स्वयं से भी अधिक निकट हूं, अगर किसी की मृत्यु हो जाए और उसके ऊपर क़र्ज़ हो तो उसका अदा करना मेरी ज़िम्मेदारी है, लेकिन अगर कोई व्यक्ति माल छोड़कर मरे तो उसके अधिकारी उसके उत्तराधिकारी हैं।

(मुस्लिम : रिवायत अबू हुरैरा रज़ि॰)

आदर्श समाज का निर्माण क़ानून के द्वारा चाहे वह कितने ही न्यायसंगत और अच्छे हों, नहीं हो सकता। आदर्श समाज का निर्माण निरन्तर जारी रहने वाली शिक्षा, प्रशिक्षण और बुद्धिमत्ता से की गई रहनुमाई द्वारा ही सम्भव है। इसलिए इस्लाम जितना ध्यान क़ानून बनाने और नियम निर्धारित करने पर देता है, उतना ही, बल्कि उससे भी ज़्यादा ध्यान वह शिक्षा, प्रशिक्षण और रहनुमाई पर देता है। जागरूकता और परिवर्तन की बुनियाद बुद्धिमान, ईमान वाले और शिष्ट आचरण वाले इन्सान का निर्माण और प्रशिक्षण है। यही सज्जन मानव एक आदर्श समाज की बुनियाद होता है।

यही वह सज्जन मानव है जिसे सूरा अस्र में कामयाब बताया गया है।

“समय की सौगंध, मनुष्य वास्तव में घाटे में है, सिवाय उन लोगों के जो ईमान लाए और अच्छे कर्म करते रहे और एक दूसरे को हक़ की नसीहत करते और सब्र की मंत्रणा देते रहे। (क़ुरआन, 103:1-3)

 

रचनात्मक सोच रखने वाले इन्सान के अन्दर ईमान और कर्म दोनों गुण होते हैं। वह अपने सुधार पर भी ध्यान देता है और दूसरों के सुधार के लिए भी तत्पर रहता है। वह सत्य और धैर्य के हवाले से स्वयं भी दूसरों की रहनुमाई क़बूल करता है और दूसरों को भी सत्य और धैर्य के सिलसिले में रहनुमाई करता है।

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