अल्लाह ने सिर्फ कुरआन की हिफाज़त की जिम्मेदारी क्यों ली

अल्लाह ने सिर्फ कुरआन की हिफाज़त की...

अल्लाह बेशक अन्तर्यामी (अर्थात  सर्वञाता ) है . उसे मालूम था कि उसकी अवतरित वाणी में लोग कमी-बेशी कर देंगे, कुछ को भूल जाएंगे, कुछ वाणियों पर दीर्घकालिक गर्द जमते जमते वे इतिहास के अन्धकार में   विलुप्त भी हो जाएंगी। अल्लाह ईश्वर अन्तर्यामी ( सर्वज्ञाता ) होने के साथ-साथ  सर्वसक्षम, सर्वसमर्थ, सर्व-शक्तिसंपन्न भी है. वो चाहता तो ऐसे संसाधन, परिस्थितियां, तथा ऐसे निष्ठावान मनुष्य पैदा कर देता जो अपने-अपने समय की ईशवाणी को सुरक्षित कर लेते। परन्तु ईश्वर सर्व-तत्वदर्शी (All- Wise) भी है. उसे पूर्णरूपेण ज्ञात था कि अपनी किस वाणी को सुरक्षित नहीं रखना है और किसे रखना है। अतः उसकी  अपार तत्वदर्शिता (Absolute Wisdom) के अनुकूल ही,, उसकी जो वाणी किसी विशेष क्षेत्र-सीमा में बसी हुई, किसी विशेष समय-काल तक मौजूद रहने वाली, अपरिपक्व सभ्यता-संस्कृति की स्तिथि में रहने वाली, तथा कुछ विशेष, सीमित व अस्थायी आवश्यकताओं तथा समस्याओं वाले सामाजिक जीवन बिताने वाली कौमों के लिए अवतरित हुई उसे उसी तत्संबंधित क्षेत्र, काल, समुदाय पर लागू होने तक ईश्वर ने  उसे  सुरक्षित रखा. उस की प्रासंगिकता ख़त्म होने के साथ उसे सुरक्षित रखने की अनिवार्यता भी ख़त्म होती गई। 
एक और महत्पूर्ण बात समझ लेनी अवश्यक है. जाहिर है कि ईश्वर ने यह जगत, यह पृथ्वी यूँ ही अलल-टप नहीं बना दी। इसकी श्रृष्टि और रचना की उसकी एक "वृहद् श्रृष्टि-योजना" 
(Master Creation Plan) रही है। उसके अनुसार श्रृष्टि एक" क्रमागत् प्रक्रिया " (evolution) के चरणों से गुज़र कर अस्तित्व में आई है। इस विश्व में मनुष्य के अस्तित्व में तो क्रमागत् विकास नहीं हुआ ( चार्ल्स डार्विन की इवाल्यूशन थेवरी को , जो वास्तव में कोई थ्योरी नहीं  सिर्फ़ हाइपोथेसिस थी , सारे ईशधर्मों ने अस्वीकार किया है  ) । मनुष्य के रहन - सहन, उसकी जीवन यापन प्रणाली , सामाजिकता, नागरिकता सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-स्तर, अनुभवों, दाम्पत्य /परिवारिक/ सामाजिक/ सामुदायिक /तथा सामूहिक आवश्यकताओं व समस्यायों तथा संसाधनों में  अवश्यतः क्रमागत्  विकास होता रहा है. अतः मानवजाति की प्रारम्भिक व मध्यकालीन अवस्थाओं के साथ-साथ तदानुकूल  ईशादेश और ईश्वरीय मार्गदर्शन  बदलते और निरस्त( obsolete) भी कर दिए जाते रहे। तदनुसार समसामयिक  ईशवाणी  भी निरस्त  तथा अधिकाधिक विलुप्त कर दी जाती रही (सिवाय  शास्वत- ईशधर्म की मूल धारणाओं....विशुद्ध एकेश्वरवाद, परलोकवाद, और  ईशदूतवाद.... के ; यद्यपि इन में भी  मानव-हस्तक्षेप से कुछ विकार व बदलाव भी आता रहा।)
फिर  काल-कालांतर से गुज़रते हुए मानव-सभ्यता परिपक्वता के चरण तक पहुंची। मनुश्य का ञान-स्तर परिपक्वता की स्थिति में आया।  जो कम आबादी कुछेक क्षेत्रों में सिमट कर रहा करती थी धीरे-धीरे स्थांतरण या पलायन करके  व्यापक भूक्षेत्रों में फैलती गई। भाषाओं को लिपि मिली। काग़ज़ और रोशनाई का आविष्कार हुआ। लेखन-पद्धति आविष्क्रित व विकसित हुई। मुद्रण व प्रसारण प्रक्रिया शुरू हुई। मानव ज्ञान, सभ्यता और क्षमता तथा एक हद तक तकनालोजी भी जब इस अवस्था में आ गई कि ईशवाणी को लिखित रूप में संकलित, सुरक्षित, मुद्रित, प्रकाशित, तथा प्रसारित किए जाने के संसाधन उप्लब्ध हो गए। और ईश्वर ने अपने ज्ञान व तत्वदर्शिता से परिस्थिति को एक अस्थायी, सार्वभौमिक व सार्वकालिक मार्गदर्शन के अवतरण के अनुकूल समझा तब अपनीअंतिम वाणी (कुरआन) अवतरित की जो अपने मौलिक( original) रूप में अक्षरशः विश्वसनीयता व पूर्ण शुद्धता के साथ 1400 वर्षों से सुरक्षित रूप में वर्तमान तक मानवजाति को उपलब्ध है। पूर्वकालीन ईशग्रंथ चूंकि लघुकालीन, सीमितक्षेत्र,सीमित-समुदाय-आधारित तथा अस्थायी हुआ करते थे, इतिहास काल न होने के कारण आगे चल कर उन की ऐतिहासिक विश्वसनीयता सिद्ध नहीं हो सकती थी , इस कारण से ईश्वर ने अपने विशेष प्रयोजन से उन्हें सुरक्षित करने का प्रावधान नहीं किया। परंतु  अपनी अंतिम वाणी, ईशग्रंथ- श्रंखला की अंतिम कड़ी, अंतिम (Final & Conclusive) संस्करण.... कुरआन ..... को सार्वभौमिक, सर्वकालिक बनाना ईश्वर की स्रिष्टि-योजना में शामिल था इसलिए उस ने इसे इतिहास के पूरे प्रकाश में अवतरित किया। पूर्वकालीन ग्रंथ कब अवतरित हुए, किन लोगों ने उन्हें लिखा, कब लिखा, उनके कितने अंश विलुप्त हो गए , उन में मानव-वाणी का कितना मिश्रण हुआ, वॊ कितने शुद्ध रह गए कितने अशुद्ध ... इन तथ्यों पर अज्ञान व
अनैतिहासिकता के पर्दे पड़े हूए हैं। किंतु कुरआन के बारे में मअलूम है कि इसका अवतरण 17 अगस्त 610 ई. को अरब प्रायद्वीप के नगर मक्का की एक पहाड़ी जिस का नाम प्रकाश पर्वत ( जबल-अल-नूर) है, की हिरा नामक गुफा में (जो आज भी इसी पहचान के साथ वहाँ मौजूद है) , ईशदूत हज़रत मुहम्मद स. पर आरंभ हुआ.और पैगंबर साहब के देहावसान के आठ दिन पूर्व 31 मई 632 ई. को पूर्ण हुआ। अवतरण के तुरंत बाद पैगंबर साहब तत्संबंधित अंश को अपने साथियों को लिखवा देते। ऐसे चालीस लिपिक हुए हैं, उन के नाम  उन के पिता और कबीले के नामों के साथ इतिहास में सुरक्षित हैं। लोग हर अंश को अवतरित रूप में पूरी शुद्धता के साथ कंठस्थ (memorise) भी कर लेते। पूर्व कालीन ग्रंथों की अस्ल भाषा और लिपि भी या तो विलुप्त होगी या अनुपयोग्य। 
अब यह ईशग्रंथ सार्वभौमिक तथा सार्वकालिक है। इस की भाषा , लिपि तथा इसका व्याकरण  जीवंत तथा वैश्विक स्तर पर उपयोग्य, सुप्रचलित और व्यवहारगत है। इस के इसी गुण और इसी सार्व-उपयोगिता के लक्ष्य से ही ईश्वर ने इस की हिफाज़त का ज़िम्मा लिया। अन्य ग्रंथों में यह गुणवत्ता न थी ( और  जैसा कि ऊपर लिखा  जा चुका ईश्वर के स्रिष्टि-योजनानुसार उनमें इस गुणवत्ता को होना भी नहीं था ) इस कारण ईश्वर ने उन की हिफाजत का जिम्मा नहीं लिया। स्वयं इस ईश्-ग्रंथ (कुरआन )में यह ईश्-वक्तव्य लिखित है कि पूर्व ग्रंथों में ईश्-वाणी के जो जो(प्रमुख व लाभदायक) सत्यांश थे वे सभी इस अंतिम ग्रंथ में समाहित करके सदा के लिए सुरक्षित कर लिए गए हैं। इस प्रकार पूर्वकालीन ग्रंथों के सुरक्षित रहने की आवश्यक्ता इस अंतिम तथा विश्वसनीय संस्करण ने समाप्त कर दी। 
यदि कुरआन का ध्यानपूर्वक एवं सनिष्ठ अध्ययन किया जाए तो उपरोक्त सारी बातों की पुष्टि के प्रमाण सहजता के साथ उसमें मिल जाएंगे.

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