अहिंसा और इस्लाम

अहिंसा और इस्लाम

वामन शिवराम आप्टे ने ‘संस्कृत-हिन्दी-कोश’ में ‘अहिंसा का अर्थ इस प्रकार किया है—अनिष्टकारिता का अभाव, किसी प्राणी को न मारना, मन-वचन-कर्म से किसी को पीड़ा न देना (पृष्ठ 134)। मनुस्मृति (10-63, 5-44, 6-75) और भागवत पुराण (10-5) में यही अर्थापन किया गया है । ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का वाक्य इसी से संबंधित है । प्रसिद्ध जैन विद्वान श्री वल्लभ सूरी ने अपनी पुस्तक ‘जैनिज़्म’ (Jainism) में ‘अहिंसा’ की व्याख्या इन शब्दों में की है—
‘‘जैन धर्म के संतों ने अहिंसा को सदाचार के एक सिद्धांत के रूप में ज़ोर देकर प्रतिपादित किया है । ‘अहिंसा’ की संक्षिप्त परिभाषा यह है कि जीवन सम्मानीय है चाहे वह किसी भी रूप में मौजूद हो । पर एक व्यक्ति कह सकता है कि जीवन के सभी रूपों को हानि पहुंचाने से पूर्णतः बचते हुए संसार में जीवित रहना लगभग असंभव है, इसलिए जैन धर्म विभिन्न प्रकार की हिंसाओं में हिंसा करने वाले की मानसिक प्रवृत्ति के अनुसार अन्तर करता है...यह बात मानी हुई है कि प्रतिदिन के कार्य, चलने-फिरने, खाना पकाने और कपड़े धोने एवं इस प्रकार के दूसरे कार्यों से बहुत कुछ हिंसा होती है। कृषि और उद्योग-धंधों के विभिन्न कार्य भी हिंसा का कारण बनते हैं । इसी प्रकार स्वयं की अथवा धन-संपत्ति की प्रतिरक्षा के सिलसिले में भी हमलावर से जीवन को हानि पहुंच सकती है या वह नष्ट हो सकता है । अतः जैन धर्म इस सामान्य और समग्र सैद्धांतिकता के बावजूद, जो इसके सभी सिद्धांतों की एक विशेषता है, एक गृहस्थ की हिंसा के इन तीन प्रकार को करने से नहीं रोकता है, जिन्हें सांयोगिक, व्यावसायिक और प्रतिरक्षात्मक कह सकते हैं। गृहस्थ को ऐसी हिंसा से बचने का परामर्श दिया गया है जो हिंसा के लिए हो, जो मात्र रस, प्रसन्नता और मनोविहार के रूप में हो या कोई उद्देश्य प्राप्त करना अभीष्ट न हो ।’’ (पृष्ठ 8-10)
इस्लाम व्यावहारिक मानव-जीवन के प्रत्येक अंग के लिए एक प्रणाली है। यह वह प्रणाली है जो आस्था-संबंधी उस कल्पना को भी अपने में समाहित किये हुए है, जो जगत की प्रकृति की व्याख्या करती और जगत में मानव का स्थान निश्चित करती है, जिस प्रकार वह मानव अस्तित्व के मौलिक उद्देश्य को निश्चित करने का कार्य करती है । इसमें सिद्धांत और व्यावहारिक व्यवस्थाएं भी शामिल हैं, जो इस आस्थात्मक कल्पना से निकलती एवं इसी पर निर्भर करती हैं और इसे वह व्यावहारिक रूप प्रदान करती मानव-जीवन में चित्रित होता है ।

‘इस्लाम’ अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है—

‘‘शांति में प्रवेश करना। यह संधि कुशलता, आत्मसमर्पण, आज्ञापालन और विनम्रता के संदर्भ में भी प्रस्तुत होता है। इस्लाम अर्थात् वह धर्म जिसके द्वारा मनुष्य शांति-प्राप्ति के लिए अल्लाह की शरण लेता है और क़ुरआन एवं हदीस (हज़रत मुहम्मद सल्ल॰ के वचन एवं कर्म) द्वारा निर्दिष्ट सिद्धांतों के आधार पर अन्य मनुष्यों के प्रति प्रेम और अहिंसा का व्यवहार करता है।’’ (शॉरटर इन्साइक्लोपीडिया ऑफ इस्लाम, पृष्ठ 176)
इस्लाम मनुष्य को शांति और सहिष्णुता का मार्ग दिखाता है। यह सत्य, अहिंसा, कुशलता का समर्थक है । इसका संदेश वास्तव में शांति का संदेश है। इसका लक्ष्य शांति, सुधार और निर्माण है । वह न तो उपद्रव और बिगाड़ को पसन्द करता है और न ही ज़ुल्म-ज़्यादती, क्रूरता, अन्याय, अनाचार, अत्याचार, असहिष्णुता, पक्षपात और संकीर्णता आदि विकारों व बुराइयों का समर्थक है। ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने कहा कि जो व्यक्ति भी इस्लाम में आया, सलामत रहा ।
इतिहास में झांकें तो यह तथ्य स्पष्टतया सामने आता है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) से पूर्व अरबवासी सभ्यता और मानवोचित आचार-व्यवहार से कोसों दूर थे, इसीलिए इस युग को ‘ज़माना-ए-जाहिलीयत’ (अज्ञानकाल) कहा जाता है (द्रष्टव्य-लिटररी हिस्ट्री ऑफ अरब्स-आर॰ए॰ निकल्सन, कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी, पृष्ठ 25)। उस युग में चारों ओर अज्ञान, अनाचार, अशांति, अमानवीय कृत्यों और वर्गगत विषमताओं का साम्राज्य था । अरबों में अधिकतर बद्दू थे, जो प्रायः असभ्य होने के साथ-साथ अत्यंत पाषाणहृदय भी थे । इनके बारे में पवित्र कु़रआन में कहा गया है—‘‘ये बद्दू इन्कार और कपटाचार में बहुत ही बढ़े हुए हैं ।’’
इस्लाम ने उन सभ्य आचार-विचार से रहित बद्दुओं को सन्मार्ग दिखाया और उन्हें पशुत्व से ऊपर उठाकर मानवता के श्रेष्ठ मूल्यों से परिचित कराया, बल्कि उन्हें दूसरों के पथ-प्रदर्शक एवं अल्लाह के धर्म का आवाहक बना दिया । हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने लोगों को सदाचार और नैतिकता की शिक्षा दी। उन्हें प्रशिक्षित कर आत्मशुद्धि का मार्ग दिखाया और समाज को तथ्यहीन रीति-रिवाजों से मुक्त कर उच्च कोटि के नैतिक व्यवहार, संस्कृति, सामाजिकता और अर्थ के नये नियमों पर व्यवस्थित कर सुसंगठित किया। पवित्र क़ुरआन में हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के बारे में अल्लाह ने कहा है—‘‘हमने तुम्हें सारे संसार के लिए बस सर्वथा दयालुता बनाकर भेजा है।’’ (21:107)। स्पष्ट है, जो सारे संसार के लिए दयालुता का आगार हो, उसकी शिक्षा हिंसात्मक कदापि नहीं हो सकती । हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) ने कहा है—‘‘अल्लाह ने मुझे नैतिक विशेषताओं और अच्छे कार्यों की पूर्ति के लिए भेजा है।’’ (शरहुस्सुन्नह)। क़ुरआन में है—‘‘निस्सन्देह तुम (हज़रत मुहम्मद सल्ल॰) एक महान नैतिकता के शिखर पर हो।’’ (68:4)
इस्लाम के विरोधी लोग और ऐसे कुछ लोग भी जो इस्लाम की शिक्षाओं से अनभिज्ञ हैं, यह दुष्प्रचार करते हैं कि यह हिंसा और आतंकवाद का समर्थक है । ये शब्द इस्लामी शिक्षाओं के विपरीतार्थक शब्द हैं, जिनका इस्लाम से दूर-दूर का भी कोई संबंध नहीं है। यदि कहीं कुछ मुसलमान अपने व्यक्तिगत हित के लिए हिंसा और आतंकवाद का मार्ग अपनाएं और इन्हें बढ़ावा दें, तो भी किसी प्रकार इनका संबंध इस्लाम से नहीं जुड़ सकता, बल्कि यह धर्म-विरुद्ध कार्य होगा और इसे धर्म के बदतरीन शोषण की संज्ञा दी जाएगी। इस्लाम दया, करुणा, अहिंसा, क्षमा और परोपकार का धर्म है । इसके कुछ सुदृढ़ प्रमाणों पर यहां चर्चा की जाएगी ।
क़ुरआन का आरंभ ‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’ से होता है । क़ुरआन की सभी सूरतों (अध्यायों) का प्रारंभ इन्हीं शब्दों से होता है और इन्हीं शब्दों के साथ मुसलमान अपना प्रत्येक कार्य प्रारंभ करते हैं। इनका हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है—‘अल्लाह के नाम से जो अत्यंत करुणामय और दयावान है।’ (‘याल्लाह नाम जापं योल्लाहो दयी हितैष्यपि’—संस्कृत अनुवाद)। इस वाक्य में अल्लाह की दो सबसे बड़ी विशेषताओं का उल्लेख किया गया है । वह अत्यंत करुणामय है और वह अत्यंत दयावान है। उसके बन्दों और भक्तों में भी ये उत्कृष्ट विशेषताएं अभीष्ट हैं। उसके बन्दों की प्रत्येक गतिविधि उसकी कृपा और अनुग्रह की प्राप्ति के लिए होती है । क़ुरआन में है—‘अल्लाह का रंग ग्रहण करो, उसके रंग से अच्छा और किसका रंग हो सकता है ? और हम तो उसी की बन्दगी करते हैं ।’ (क़ुरआन 2:138)
अल्लाह की कृपाशीलता और उसकी दयालुता का ज़िक्र (बखान) अल्लाह का बन्दा प्रत्येक नमाज़ में बार-बार करता है और अपनी परायणता व विनयशीलता की अभिव्यक्ति बार-बार करता है। यह उसकी सहिष्णुता का द्योतक भी है । पवित्र क़ुरआन के प्रथम अध्याय का पाठ अल्लाह का बन्दा प्रत्येक नमाज़ में अनिवार्यतः करता है, क्योंकि यह नमाज़ का महत्वपूर्ण भाग है, जिसके अभाव में नमाज़ का आयोजन पूर्ण नहीं हो सकता। यहां इस अध्याय का हिन्दी अनुवाद किया जा रहा है, ताकि सन्दर्भित विषय भली-भांति स्पष्ट हो सके—
‘‘प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है जो सारे संसार का प्रभु है, बड़ा कृपाशील और दया करने वाला है, बदला दिये जाने के दिन का मालिक है । हम तेरी ही बन्दगी करते हैं और तुझी से मदद मांगते हैं । हमें सीधा मार्ग दिखा, उन लोगों का मार्ग, जो तेरे कृपापात्र हुए, जो प्रकोप के भागी नहीं हुए, जो भटके हुए नहीं हैं ।’’  (क़ुरआन, 1:1-7)
इस्लाम की शांति, सहिष्णुता, सद्भावना की शिक्षाएं समझने के लिए पवित्रा क़ुरआन की कुछ आयतों के अनुवाद यहां प्रस्तुत हैं—
‘‘जब कभी उनसे कहा गया कि धरती पर फ़साद (अशांति, बिगाड़) न पैदा करो, तो उन्होंने यही कहा कि ‘हम तो सुधार करने वाले हैं।’ सावधान, वास्तव में यही लोग फ़साद पैदा करते हैं, किन्तु ये जान नहीं पा रहे हैं ।’’ (क़ुरआन, 2:11,12)
‘‘अल्लाह का दिया हुआ खाओ-पियो और धरती में बिगाड़ न फैलाते फिरो।’’  (क़ुरआन, 2:60)
‘‘जब उसे सत्ता मिल जाती है तो धरती में उसकी सारी दौड़-धूप इसलिए होती है कि अशांति फैलाए, खेतों को नष्ट और मानव-संतति को तबाह करे—हालांकि अल्लाह बिगाड़ कदापि नहीं चाहता—और जब उससे कहते हैं कि अल्लाह से डर, तो अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान उसको गुनाह पर जमा देता है । ऐसे व्यक्ति के लिए तो बस नरक ही पर्याप्त है और वह बहुत बुरा ठिकाना है ।’’ (क़ुरआन, 2:205-206)
‘‘वे लोग जो ख़ुशहाली और तंगी की प्रत्येक अवस्था में अपने माल ख़र्च करते रहते हैं और क्रोध को रोकते हैं और लोगों को क्षमा करते हैं—और अल्लाह को भी ऐसे लोग प्रिय हैं, जो अच्छे से अच्छा कर्म करते हैं ।’’ (क़ुरआन, 3:134)
‘‘ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, आपस में एक-दूसरे के माल ग़लत ढंग से न खाओ, लेन-देन होना चाहिए आपस की रज़ामंदी से और अपने प्राणों (अर्थात, आत्महत्या और दूसरों के प्राणों) की हत्या न करो ।’’ (क़ुरआन, 4:29)
‘‘अपने प्रभु को गिड़गिड़ाकर और चुपके-चुपके पुकारो। निश्चय ही वह हद से आगे बढ़ने वालों को पसन्द नहीं करता। और धरती में उसके सुधार के पश्चात् बिगाड़ न पैदा करो। भय और आशा के साथ उसे पुकारो। निश्चय ही, अल्लाह की दयालुता सत्कर्मी लोगों के निकट है ।’’ (क़ुरआन, 7:55,56)
‘‘ऐ नबी, नरमी और क्षमा से काम लो, भले काम का हुक्म दो और अज्ञानी लोगों से न उलझो।’’ (क़ुरआन, 7:199)
‘‘और वे क्रोध को रोकने वाले हैं और लोगों को क्षमा करने वाले हैं। और अल्लाह को ऐसे लोग प्रिय हैं जो अच्छे से अच्छा कर्म करते हैं।’’ (क़ुरआन, 3:134)
‘‘निश्चय ही अल्लाह न्याय का और भलाई का एवं नातेदारों को (उनके हक़) देने का आदेश देता है और अश्लीलता, बुराई एवं सरकशी से रोकता है। वह तुम्हें नसीहत करता है, ताकि तुम शिक्षा लो।’’ (क़ुरआन, 16:90)
क़ुरआन की इन आयतों से इस्लाम की शांति, कुशलता और सदाचरण की शिक्षाएं स्पष्ट तथा परिलक्षित होती हैं और लोगों को सफल जीवन के लिए आमंत्रित करती हैं। वास्तव में शांति, प्रेम, अहिंसा और सदाचरण इस्लाम की महत्वपूर्ण शिक्षाएं हैं, लेकिन इस्लाम अहिंसा को इस अर्थ में नहीं लेता कि मानव-उपभोग की वे चीज़ें बहिष्कृत कर दी जाएं, जिनमें जीव-तत्व हो। इस आधार पर ही कोई व्यक्ति फल, सब्ज़ियां और दही, अनाज आदि का सेवन नहीं कर सकता, क्योंकि विज्ञान ने इनमें जीव-तत्व सिद्ध कर दिया है और न ही कोई व्यक्ति इस आधर पर एंटी बायोटिक औषधि का सेवन कर सकेगा, क्योंकि इससे जीवाणु मर जाएंगे। इस्लाम की शिक्षाएं मानव-जीवन के लिए पूर्णतः व्यावहारिक हैं। इस्लाम को यह भी अभीष्ट है कि जहां सत्य-असत्य के बीच संघर्ष हो, वहां सत्य का साथ दिया जाए और उसके लिए जी तोड़ प्रयत्न किया जाए। यह अहिंसा के विरुद्ध नहीं है। इस्लाम ने असत्य के विरुद्ध युद्ध का आदेश तो दिया है, लेकिन विभिन्न प्रकार के प्रतिबंधों के साथ ताकि आदेश कहीं ‘हिंसा’ की परिभाषा में न आ जाए। इस संबंध में क़ुरआन की कुछ आयतें दृष्टव्य हैं—
‘‘जिसने किसी व्यक्ति को किसी के ख़ून का बदला लेने या धरती में फ़साद (हिंसा और उपद्रव) फैलाने के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला तो मानो उसने सारे ही इन्सानों की हत्या कर डाली। और जिसने किसी की जान बचाई उसने मानो सारे इन्सानों को जीवन-दान दिया।’’ (क़ुरआन, 5:32)
‘‘और अल्लाह के मार्ग में उन लोगों से लड़ो जो तुमसे लड़ें, किन्तु ज़्यादती न करो। निस्सन्देह, अल्लाह ज़्यादती करने वालों को पसन्द नहीं करता ।’’  (क़ुरआन, 2:190)
इस्लाम ने युद्ध के दौरान वृद्धजनों, स्त्रियों, बच्चों और उन लोगों पर जो इबादतगाहों में शरण लिए हों (चाहे वे किसी भी धर्म के अनुयायी हों) हाथ उठाने से मना किया है और अकारण फलदार व हरे-भरे वृक्षों को काटने से रोका है ।
‘‘किसी जीव की हत्या न करो, जिसे (मारना) अल्लाह ने हराम ठहराया है।

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